॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम
स्कन्ध – आठवाँ
अध्याय..(पोस्ट०२)
नृसिंहभगवान्
का प्रादुर्भाव,
हिरण्यकशिपु का वध
एवं
ब्रह्मादि देवताओं द्वारा भगवान् की स्तुति
श्रीप्रह्लाद
उवाच
न
केवलं मे भवतश्च राजन्
स
वै बलं बलिनां चापरेषाम्
परेऽवरेऽमी
स्थिरजङ्गमा ये
ब्रह्मादयो
येन वशं प्रणीताः ||८||
स
ईश्वरः काल उरुक्रमोऽसा-
वोजः
सहः सत्त्वबलेन्द्रि यात्मा
स
एव विश्वं परमः स्वशक्तिभिः
सृजत्यवत्यत्ति
गुणत्रयेशः ||९||
जह्यासुरं
भावमिमं त्वमात्मनः
समं
मनो धत्स्व न सन्ति विद्विषः
ऋतेऽजितादात्मन
उत्पथे स्थिता-
त्तद्धि
ह्यनन्तस्य महत्समर्हणम् ||१०||
दस्यून्पुरा
षण्ण विजित्य लुम्पतो
मन्यन्त
एके स्वजिता दिशो दश
जितात्मनो
ज्ञस्य समस्य देहिनां
साधोः
स्वमोहप्रभवाः कुतः परे ||११||
प्रह्लादजी
ने कहा—दैत्यराज ! ब्रह्मा से लेकर तिनकेतक सब छोटे-बड़े, चर-अचर
जीवों को भगवान् ने ही अपने वशमें कर रखा है। न केवल मेरे और आपके, बल्कि संसार के समस्त बलवानों के बल भी केवल वही हैं ॥ ८ ॥ वे ही
महापराक्रमी सर्वशक्तिमान् प्रभु काल हैं तथा समस्त प्राणियों के इन्द्रियबल,
मनोबल, देहबल, धैर्य एवं
इन्द्रिय भी वही हैं। वही परमेश्वर अपनी शक्तियोंके द्वारा इस विश्व की रचना,
रक्षा और संहार करते हैं। वे ही तीनों गुणों के स्वामी हैं ॥ ९ ॥ आप
अपना यह आसुर भाव छोड़ दीजिये। अपने मनको सबके प्रति समान बनाइये। इस संसारमें
अपने वशमें न रहनेवाले कुमार्गगामी मनके अतिरिक्त और कोई शत्रु नहीं है। मनमें
सबके प्रति समताका भाव लाना ही भगवान्की सबसे बड़ी पूजा है ॥ १० ॥ जो लोग अपना
सर्वस्व लूटनेवाले इन छ: इन्द्रियरूपी डाकुओंपर तो पहले विजय नहीं प्राप्त करते और
ऐसा मानने लगते हैं कि हमने दसों दिशाएँ जीत लीं, वे मूर्ख
हैं। हाँ जिस ज्ञानी एवं जितेन्द्रिय महात्माने समस्त प्राणियोंके प्रति समताका
भाव प्राप्त कर लिया, उसके अज्ञानसे पैदा होनेवाले
काम-क्रोधादि शत्रु भी मर-मिट जाते हैं; फिर बाहरके शत्रु तो
रहें ही कैसे ॥ ११ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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