॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम
स्कन्ध – आठवाँ
अध्याय..(पोस्ट०३)
नृसिंहभगवान्
का प्रादुर्भाव,
हिरण्यकशिपु का वध
एवं
ब्रह्मादि देवताओं द्वारा भगवान् की स्तुति
श्रीहिरण्यकशिपुरुवाच
व्यक्तं
त्वं मर्तुकामोऽसि योऽतिमात्रं विकत्थसे
मुमूर्षूणां
हि मन्दात्मन्ननु स्युर्विक्लवा गिरः ||१२||
यस्त्वया
मन्दभाग्योक्तो मदन्यो जगदीश्वरः
क्वासौ
यदि स सर्वत्र कस्मात्स्तम्भे न दृश्यते ||१३||
सोऽहं
विकत्थमानस्य शिरः कायाद्धरामि ते
गोपायेत
हरिस्त्वाद्य यस्ते शरणमीप्सितम् ||१४||
एवं
दुरुक्तैर्मुहुरर्दयन्रुषा
सुतं
महाभागवतं महासुरः
खड्गं
प्रगृह्योत्पतितो वरासनात्
स्तम्भं
तताडातिबलः स्वमुष्टिना ||१५||
तदैव
तस्मिन्निनदोऽतिभीषणो
बभूव
येनाण्डकटाहमस्फुटत्
यं
वै स्वधिष्ण्योपगतं त्वजादयः
श्रुत्वा
स्वधामात्ययमङ्ग मेनिरे ||१६||
स
विक्रमन्पुत्रवधेप्सुरोजसा
निशम्य
निर्ह्रादमपूर्वमद्भुतम्
अन्तःसभायां
न ददर्श तत्पदं
वितत्रसुर्येन
सुरारियूथपाः ||१७||
हिरण्यकशिपुने
कहा—रे मन्दबुद्धि ! तेरे बहकनेकी भी अब हद हो गयी है। यह बात स्पष्ट है कि अब
तू मरना चाहता है। क्योंकि जो मरना चाहते हैं, वे ही ऐसी
बेसिर-पैर की बातें बका करते हैं ॥ १२ ॥ अभागे ! तूने मेरे सिवा जो और किसीको जगत्
का स्वामी बतलाया है, सो देखूँ तो तेरा वह जगदीश्वर कहाँ है।
अच्छा, क्या कहा, वह सर्वत्र है ?
तो इस खंभेमें क्यों नहीं दीखता ? ॥ १३ ॥
अच्छा, तुझे इस खंभेमें भी दिखायी देता है ! अरे, तू क्यों इतनी डींग हाँक रहा है ? मैं अभी-अभी तेरा
सिर धड़से अलग किये देता हूँ। देखता हूँ तेरा वह सर्वस्व हरि, जिसपर तुझे इतना भरोसा है, तेरी कैसे रक्षा करता है
॥ १४ ॥ इस प्रकार वह अत्यन्त बलवान् महादैत्य भगवान्के परम प्रेमी प्रह्लादको
बार-बार झिड़कियाँ देता और सताता रहा। जब क्रोधके मारे वह अपनेको रोक न सका,
तब हाथमें खड्ग लेकर सिंहासनसे कूद पड़ा और बड़े जोरसे उस खंभेको एक
घूँसा मारा ॥ १५ ॥ उसी समय उस खंभेमें एक बड़ा भयङ्कर शब्द हुआ। ऐसा जान पड़ा मानो
यह ब्रह्माण्ड ही फट गया हो। वह ध्वनि जब लोकपालों के लोक में पहुँची, तब उसे सुनकर ब्रह्मादि को ऐसा जान पड़ा, मानो उनके
लोकों का प्रलय हो रहा हो ॥ १६ ॥ हिरण्यकशिपु प्रह्लाद को मार डालने के लिये बड़े
जोर से झपटा था; परंतु दैत्यसेनापतियों को भी भय से कँपा
देनेवाले उस अद्भुत और अपूर्व घोर शब्द को सुनकर वह घबराया हुआ-सा देखने लगा कि यह
शब्द करनेवाला कौन है। परंतु उसे सभाके भीतर कुछ भी दिखायी न पड़ा ॥ १७ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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