शुक्रवार, 12 जुलाई 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

नृसिंहभगवान्‌ का प्रादुर्भाव, हिरण्यकशिपु का वध
एवं ब्रह्मादि देवताओं द्वारा भगवान्‌ की स्तुति

सत्यं विधातुं निजभृत्यभाषितं
व्याप्तिं च भूतेष्वखिलेषु चात्मनः
अदृश्यतात्यद्भुतरूपमुद्वहन्  
स्तम्भे सभायां न मृगं न मानुषम् ||१८||
स सत्त्वमेनं परितो विपश्यन्
स्तम्भस्य मध्यादनुनिर्जिहानम्
नायं मृगो नापि नरो विचित्र-
महो किमेतन्नृमृगेन्द्र रूपम् ||१९||
मीमांसमानस्य समुत्थितोऽग्रतो
नृसिंहरूपस्तदलं भयानकम्
प्रतप्तचामीकरचण्डलोचनं
स्फुरत्सटाकेशरजृम्भिताननम् ||२०||

इसी समय अपने सेवक प्रह्लाद और ब्रह्माकी वाणी सत्य करने और समस्त पदार्थोंमें अपनी व्यापकता दिखानेके लिये सभाके भीतर उसी खंभेमें बड़ा ही विचित्र रूप धारण करके भगवान्‌ प्रकट हुए । वह रूप न तो पूरा-पूरा सिंह का ही था और न मनुष्यका ही ॥ १८ ॥ जिस समय हिरण्यकशिपु शब्द करने वाले की इधर-उधर खोज कर रहा था, उसी समय खंभे के भीतर से निकलते हुए उस अद्भुत प्राणी को उसने देखा । वह सोचने लगाअहो, यह न तो मनुष्य है और न पशु; फिर यह नृसिंह के रूप में कौन-सा अलौकिक जीव है ! ॥ १९ ॥  जिस समय हिरण्यकशिपु इस उधेड़-बुन में लगा हुआ था, उसी समय उसके बिलकुल सामने ही नृसिंहभगवान्‌ खड़े हो गये। उनका वह रूप अत्यधिक भयावना था। तपाये हुए सोने के समान पीली-पीली भयानक आँखें थीं। जँभाई लेनेसे गरदन के बाल इधर-उधर लहरा रहे थे ॥ २० ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




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