॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम
स्कन्ध – आठवाँ
अध्याय..(पोस्ट०४)
नृसिंहभगवान्
का प्रादुर्भाव,
हिरण्यकशिपु का वध
एवं
ब्रह्मादि देवताओं द्वारा भगवान् की स्तुति
सत्यं
विधातुं निजभृत्यभाषितं
व्याप्तिं
च भूतेष्वखिलेषु चात्मनः
अदृश्यतात्यद्भुतरूपमुद्वहन्
स्तम्भे
सभायां न मृगं न मानुषम् ||१८||
स
सत्त्वमेनं परितो विपश्यन्
स्तम्भस्य
मध्यादनुनिर्जिहानम्
नायं
मृगो नापि नरो विचित्र-
महो
किमेतन्नृमृगेन्द्र रूपम् ||१९||
मीमांसमानस्य
समुत्थितोऽग्रतो
नृसिंहरूपस्तदलं
भयानकम्
प्रतप्तचामीकरचण्डलोचनं
स्फुरत्सटाकेशरजृम्भिताननम्
||२०||
इसी
समय अपने सेवक प्रह्लाद और ब्रह्माकी वाणी सत्य करने और समस्त पदार्थोंमें अपनी
व्यापकता दिखानेके लिये सभाके भीतर उसी खंभेमें बड़ा ही विचित्र रूप धारण करके
भगवान् प्रकट हुए । वह रूप न तो पूरा-पूरा सिंह का ही था और न मनुष्यका ही ॥ १८ ॥
जिस समय हिरण्यकशिपु शब्द करने वाले की इधर-उधर खोज कर रहा था, उसी समय खंभे के भीतर से निकलते हुए उस अद्भुत प्राणी को उसने देखा । वह
सोचने लगा—अहो, यह न तो मनुष्य है और न
पशु; फिर यह नृसिंह के रूप में कौन-सा अलौकिक जीव है ! ॥ १९
॥ जिस समय हिरण्यकशिपु इस उधेड़-बुन में
लगा हुआ था, उसी समय उसके बिलकुल सामने ही नृसिंहभगवान्
खड़े हो गये। उनका वह रूप अत्यधिक भयावना था। तपाये हुए सोने के समान पीली-पीली
भयानक आँखें थीं। जँभाई लेनेसे गरदन के बाल इधर-उधर लहरा रहे थे ॥ २० ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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