॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम
स्कन्ध – आठवाँ
अध्याय..(पोस्ट०५)
नृसिंहभगवान्
का प्रादुर्भाव,
हिरण्यकशिपु का वध
एवं
ब्रह्मादि देवताओं द्वारा भगवान् की स्तुति
करालदंष्ट्रं
करवालचञ्चल-
क्षुरान्तजिह्वं
भ्रुकुटीमुखोल्बणम्
स्तब्धोर्ध्वकर्णं
गिरिकन्दराद्भुत-
व्यात्तास्यनासं
हनुभेदभीषणम् ||२१||
दिविस्पृशत्कायमदीर्घपीवर
ग्रीवोरुवक्षःस्थलमल्पमध्यमम्
चन्द्रांशुगौरैश्छुरितं
तनूरुहै-
र्विष्वग्भुजानीकशतं
नखायुधम् ||२२||
दुरासदं
सर्वनिजेतरायुध-
प्रवेकविद्रावितदैत्यदानवम्
प्रायेण
मेऽयं हरिणोरुमायिना
वधः
स्मृतोऽनेन समुद्यतेन किम् ||२३||
एवं
ब्रुवंस्त्वभ्यपतद्गदायुधो
नदन्नृसिंहं
प्रति दैत्यकुञ्जरः
अलक्षितोऽग्नौ
पतितः पतङ्गमो
यथा
नृसिंहौजसि सोऽसुरस्तदा ||२४||
(भगवान्
की) दाढ़ें बड़ी विकराल थीं। तलवार की तरह लपलपाती हुई छूरे की धार के समान तीखी
जीभ थी। टेढ़ी भौंहों से उनका मुख और भी दारुण हो रहा था। कान निश्चल एवं ऊपर की
ओर उठे हुए थे। फूली हुई नासिका और खुला हुआ मुँह पहाड क़ी गुफा के समान अद्भुत जान
पड़ता था। फटे हुए जबड़ोंसे उसकी भयङ्करता बहुत बढ़ गयी थी ॥ २१ ॥ विशाल शरीर
स्वर्गका स्पर्श कर रहा था। गरदन कुछ नाटी और मोटी थी। छाती चौड़ी और कमर बहुत
पतली थी। चन्द्रमाकी किरणोंके समान सफेद रोएँ सारे शरीरपर चमक रहे थे, चारों ओर सैकड़ों भुजाएँ फैली हुई थीं, जिनके
बड़े-बड़े नख आयुधका काम देते थे ॥ २२ ॥ उनके पास फटकने
तक
का साहस किसी को न होता था। चक्र आदि अपने निज आयुध तथा वज्र आदि अन्य श्रेष्ठ
शस्त्रोंके द्वारा उन्होंने सारे दैत्य-दानवोंको भगा दिया। हिरण्यकशिपु सोचने लगा— हो-न-हो महामायावी विष्णुने ही मुझे मार डालनेके लिये यह ढंग रचा है;
परंतु इसकी इन चालोंसे हो ही क्या सकता है ॥ २३ ॥ इस प्रकार कहता और
सिंहनाद करता हुआ दैत्यराज हिरण्यकशिपु हाथमें गदा लेकर नृसिंह- भगवान्पर टूट
पड़ा। परंतु जैसे पतंगा आग में गिरकर अदृश्य
हो जाता है, वैसे ही वह दैत्य भगवान्के तेजके भीतर जाकर
लापता हो गया ॥ २४ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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