॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम
स्कन्ध – नवाँ
अध्याय..(पोस्ट०५)
प्रह्लादजी
के द्वारा नृसिंहभगवान् की स्तुति
त्रस्तोऽस्म्यहं
कृपणवत्सल दुःसहोग्र
संसारचक्रकदनाद्ग्रसतां
प्रणीतः
बद्धः
स्वकर्मभिरुशत्तम तेऽङ्घ्रिमूलं
प्रीतोऽपवर्गशरणं
ह्वयसे कदा नु ||१६||
यस्मात्प्रियाप्रियवियोगसंयोगजन्म
शोकाग्निना
सकलयोनिषु दह्यमानः
दुःखौषधं
तदपि दुःखमतद्धियाहं
भूमन्भ्रमामि
वद मे तव दास्ययोगम् ||१७||
सोऽहं
प्रियस्य सुहृदः परदेवताया
लीलाकथास्तव
नृसिंह विरिञ्चगीताः
अञ्जस्तितर्म्यनुगृणन्गुणविप्रमुक्तो
दुर्गाणि
ते पदयुगालयहंससङ्गः ||१८||
दीनबन्धो
! मैं भयभीत हूँ तो केवल इस असह्य और उग्र संसार-चक्रमें पिसनेसे। मैं अपने
कर्मपाशोंसे बँधकर इन भयङ्कर जन्तुओंके बीचमें डाल दिया गया हूँ। मेरे स्वामी ! आप
प्रसन्न होकर मुझे कब अपने उन चरणकमलोंमें बुलायेंगे, जो समस्त जीवोंकी एकमात्र शरण और मोक्षस्वरूप हैं ? ॥
१६ ॥ अनन्त ! मैं जिन-जिन योनियोंमें गया, उन सभी योनियोंमें
प्रियके वियोग और अप्रियके संयोगसे होनेवाले शोककी आगमें झुलसता रहा। उन दु:खोंको
मिटानेकी जो दवा है, वह भी दु:खरूप ही है। मैं न जाने कबसे
अपनेसे अतिरिक्त वस्तुओंको आत्मा समझकर इधर-उधर भटक रहा हूँ। अब आप ऐसा साधन
बतलाइये जिससे कि आपकी सेवा-भक्ति प्राप्त कर सकूँ ॥ १७ ॥ प्रभो ! आप हमारे प्रिय
हैं। अहैतुक हितैषी सुहृद् हैं। आप ही वास्तवमें सबके परमाराध्य हैं। मैं
ब्रह्माजीके द्वारा गायी हुई आपकी लीला-कथाओंका गान करता हुआ बड़ी सुगमतासे रागादि
प्राकृत गुणोंसे मुक्त होकर इस संसारकी कठिनाइयोंको पार कर जाऊँगा; क्योंकि आपके चरणयुगलोंमें रहनेवाले भक्त परमहंस महात्माओंका सङ्ग तो मुझे
मिलता ही रहेगा ॥ १८ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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