॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम
स्कन्ध – नवाँ
अध्याय..(पोस्ट०६)
प्रह्लादजी
के द्वारा नृसिंहभगवान् की स्तुति
बालस्य
नेह शरणं पितरौ नृसिंह
नार्तस्य
चागदमुदन्वति मज्जतो नौः
तप्तस्य
तत्प्रतिविधिर्य इहाञ्जसेष्टस्
तावद्विभो
तनुभृतां त्वदुपेक्षितानाम् ||१९||
यस्मिन्यतो
यर्हि येन च यस्य यस्माद्
यस्मै
यथा यदुत यस्त्वपरः परो वा
भावः
करोति विकरोति पृथक्स्वभावः
सञ्चोदितस्तदखिलं
भवतः स्वरूपम् ||२०||
भगवान्
नृसिंह ! इस लोकमें दुखी जीवोंका दु:ख मिटानेके लिये जो उपाय माना जाता है, वह आपके उपेक्षा करनेपर एक क्षणके लिये ही होता है। यहाँतक कि मा-बाप
बालककी रक्षा नहीं कर सकते, ओषधि रोग नहीं मिटा सकती और
समुद्रमें डूबते हुएको नौका नहीं बचा सकती ॥ १९ ॥ सत्त्वादि गुणोंके कारण
भिन्न-भिन्न स्वभावके जितने भी ब्रह्मादि श्रेष्ठ और कालादि कनिष्ठ कर्ता हैं,
उनको प्रेरित करनेवाले आप ही हैं। वे आपकी प्रेरणासे जिस आधारमें
स्थित होकर जिस निमित्तसे जिन मिट्टी आदि उपकरणोंसे जिस समय जिन साधनोंके द्वारा
जिस अदृष्ट आदिकी सहायतासे जिस प्रयोजनके उद्देश्यसे जिस विधिसे जो कुछ उत्पन्न
करते हैं या रूपान्तरित करते हैं, वे सब और वह सब आपका ही
स्वरूप है ॥ २० ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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