॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम
स्कन्ध – नवाँ
अध्याय..(पोस्ट०७)
प्रह्लादजी
के द्वारा नृसिंहभगवान् की स्तुति
माया
मनः सृजति कर्ममयं बलीयः
कालेन
चोदितगुणानुमतेन पुंसः
छन्दोमयं
यदजयार्पितषोडशारं
संसारचक्रमज
कोऽतितरेत्त्वदन्यः ||२१||
स
त्वं हि नित्यविजितात्मगुणः स्वधाम्ना
कालो
वशीकृतविसृज्यविसर्गशक्तिः
चक्रे
विसृष्टमजयेश्वर षोडशारे
निष्पीड्यमानमुपकर्ष
विभो प्रपन्नम् ||२२||
पुरुष
की अनुमति से काल के द्वारा गुणों में क्षोभ होने पर माया मन:प्रधान लिङ्गशरीर का
निर्माण करती है। यह लिङ्गशरीर बलवान्, कर्ममय एवं अनेक
नाम-रूपोंमें आसक्त छन्दोमय है। यही अविद्याके द्वारा कल्पित मन, दस इन्द्रिय और पाँच तन्मात्रा—इन सोलह विकाररूप
अरोंसे युक्त संसार-चक्र है। जन्मरहित प्रभो ! आपसे भिन्न रहकर ऐसा कौन पुरुष है,
जो इस मनरूप संसार- चक्रको पार कर जाय ? ॥ २१
॥ सर्वशक्तिमान् प्रभो ! माया इस सोलह अरोंवाले संसार-चक्रमें डालकर ईखके समान
मुझे पेर रही है। आप अपनी चैतन्यशक्तिसे बुद्धिके समस्त गुणोंको सर्वदा पराजित
रखते हैं और कालरूपसे सम्पूर्ण साध्य और साधनोंको अपने अधीन रखते हैं। मैं आपकी
शरण में आया हूँ, आप मुझे इससे बचाकर अपनी सन्निधि में खींच
लीजिये ॥ २२ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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