॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम
स्कन्ध – दसवाँ
अध्याय..(पोस्ट०५)
प्रह्लादजी
के राज्याभिषेक और त्रिपुरदहन की कथा
श्रीनारद
उवाच
इत्युक्त्वा
भगवान्राजंस्ततश्चान्तर्दधे हरिः
अदृश्यः
सर्वभूतानां पूजितः परमेष्ठिना ॥ ३१ ॥
ततः
सम्पूज्य शिरसा ववन्दे परमेष्ठिनम्
भवं
प्रजापतीन्देवान्प्रह्लादो भगवत्कलाः ॥ ३२ ॥
ततः
काव्यादिभिः सार्धं मुनिभिः कमलासनः
दैत्यानां
दानवानां च प्रह्लादमकरोत्पतिम् ॥ ३३ ॥
प्रतिनन्द्य
ततो देवाः प्रयुज्य परमाशिषः
स्वधामानि
ययू राजन्ब्रह्माद्याः प्रतिपूजिताः ॥ ३४ ॥
एवं
च पार्षदौ विष्णोः पुत्रत्वं प्रापितौ दितेः
हृदि
स्थितेन हरिणा वैरभावेन तौ हतौ ॥ ३५ ॥
पुनश्च विप्रशापेन राक्षसौ तौ बभूवतुः
कुम्भकर्णदशग्रीवौ
हतौ तौ रामविक्रमैः ॥ ३६ ॥
शयानौ
युधि निर्भिन्न हृदयौ रामशायकैः
तच्चित्तौ
जहतुर्देहं यथा प्राक्तनजन्मनि ॥ ३७ ॥
ताविहाथ
पुनर्जातौ शिशुपालकरूषजौ
हरौ
वैरानुबन्धेन पश्यतस्ते समीयतुः ॥ ३८ ॥
एनः
पूर्वकृतं यत्तद्राजानः कृष्णवैरिणः
जहुस्तेऽन्ते
तदात्मानः कीटः पेशस्कृतो यथा ॥ ३९ ॥
यथा
यथा भगवतो भक्त्या परमयाभिदा
नृपाश्चैद्यादयः
सात्म्यं हरेस्तच्चिन्तया ययुः ॥ ४० ॥
नारदजी
कहते हैं—युधिष्ठिर ! नृसिंहभगवान् इतना कहकर और ब्रह्माजीके द्वारा की हुई पूजाको
स्वीकार करके वहीं अन्तर्धान—समस्त प्राणियोंके लिये अदृश्य
हो गये ॥ ३१ ॥ इसके बाद प्रह्लादजीने भगवत्स्वरूप ब्रह्मा-शङ्करकी तथा प्रजापति और
देवताओंकी पूजा करके उन्हें माथा टेककर प्रणाम किया ॥ ३२ ॥ तब शुक्राचार्य आदि
मुनियोंके साथ ब्रह्माजीने प्रह्लादजीको समस्त दानव और दैत्योंका अधिपति बना दिया
॥ ३३ ॥ फिर ब्रह्मादि देवताओं ने प्रह्लाद का अभिनन्दन किया और उन्हें शुभाशीर्वाद
दिये। प्रह्लादजीने भी यथायोग्य सबका सत्कार किया और वे लोग अपने-अपने लोकोंको चले
गये ॥ ३४ ॥
युधिष्ठिर
! इस प्रकार भगवान्के वे दोनों पार्षद जय और विजय दितिके पुत्र दैत्य हो गये थे।
वे भगवान्से वैरभाव रखते थे। उनके हृदयमें रहनेवाले भगवान्ने उनका उद्धार करेनेके
लिये उन्हें मार डाला ॥ ३५ ॥ ऋषियोंके शापके कारण उनकी मुक्ति नहीं हुई, वे फिरसे कुम्भकर्ण और रावणके रूपमें राक्षस हुए। उस समय भगवान्
श्रीरामके पराक्रमसे उनका अन्त हुआ ॥ ३६ ॥ युद्धमें भगवान् रामके बाणोंसे उनका
कलेजा फट गया। वहीं पड़े-पड़े पूर्वजन्मकी भाँति भगवान्का स्मरण करते-करते
उन्होंने अपने शरीर छोड़े ॥ ३७ ॥ वे ही अब इस युगमें शिशुपाल और दन्तवक्त्रके
रूपमें पैदा हुए थे। भगवान्के प्रति वैरभाव होनेके कारण तुम्हारे सामने ही वे
उनमें समा गये ॥ ३८ ॥ युधिष्ठिर ! श्रीकृष्णसे शत्रुता रखनेवाले सभी राजा
अन्तसमयमें श्रीकृष्णके स्मरणसे तद्रूप होकर अपने पूर्वकृत पापोंसे सदाके लिये
मुक्त हो गये। जैसे भृंगीके द्वारा पकड़ा हुआ कीड़ा भयसे ही उसका स्वरूप प्राप्त
कर लेता है ॥ ३९ ॥ जिस प्रकार भगवान्के प्यारे भक्त अपनी भेदभावरहित अनन्य
भक्तिके द्वारा भगवत्स्वरूपको प्राप्त कर लेते हैं, वैसे ही
शिशुपाल आदि नरपति भी भगवान्के वैरभावजनित अनन्य चिन्तनसे भगवान्के सारूप्यको
प्राप्त हो गये ॥ ४० ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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