॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम
स्कन्ध – सातवाँ
अध्याय..(पोस्ट०९)
प्रह्लादजी
द्वारा माता के गर्भ में प्राप्त हुए
नारद
जी के उपदेश का वर्णन
निशम्य
कर्माणि गुणानतुल्या-
न्वीर्याणि
लीलातनुभिः कृतानि
यदातिहर्षोत्पुलकाश्रुगद्गदं
प्रोत्कण्ठ
उद्गायति रौति नृत्यति ||३४||
यदा
ग्रहग्रस्त इव क्वचिद्धसत्या
क्रन्दते
ध्यायति वन्दते जनम्
मुहुः
श्वसन्वक्ति हरे जगत्पते
नारायणेत्यात्ममतिर्गतत्रपः
||३५||
तदा
पुमान्मुक्तसमस्तबन्धन-
स्तद्भावभावानुकृताशयाकृतिः
निर्दग्धबीजानुशयो
महीयसा
भक्तिप्रयोगेण
समेत्यधोक्षजम् ||३६||
जब
भगवान् के लीलाशरीरों से किये
हुए अद्भुत पराक्रम,
उनके अनुपम गुण और चरित्रोंको श्रवण करके अत्यन्त आनन्द के उद्रेक से मनुष्य का रोम-रोम खिल उठता है, आँसुओं के मारे कण्ठ गद्गद हो जाता है और वह सङ्कोच छोडक़र जोर-जोर से
गाने-चिल्लाने और नाचने लगता है; जिस समय वह ग्रहग्रस्त पागल
की तरह कभी हँसता है, कभी करुण-क्रन्दन करने लगता है,
कभी ध्यान करता है तो कभी भगवद्भाव से लोगों की वन्दना करने लगता है;
जब वह भगवान् में ही तन्मय हो जाता है, बार-बार
लंबी साँस खींचता है और सङ्कोच छोडक़र ‘हरे ! जगत्पते !!
नारायण’ !!! कहकर पुकारने लगता है—तब
भक्तियोग के महान् प्रभाव से उसके सारे बन्धन कट जाते हैं और भगवद्भाव की ही भावना
करते-करते उसका हृदय भी तदाकार—भगवन्मय हो जाता है। उस समय
उसके जन्म-मृत्यु के बीजों का खजाना ही जल जाता है और वह पुरुष श्रीभगवान् को
प्राप्त कर लेता है ॥ ३४—३६ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें