॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम
स्कन्ध – पंद्रहवाँ
अध्याय..(पोस्ट१६)
गृहस्थोंके
लिये मोक्षधर्मका वर्णन
अहं
पुराभवं कश्चिद्गन्धर्व उपबर्हणः
नाम्नातीते
महाकल्पे गन्धर्वाणां सुसम्मतः ॥ ६९ ॥
रूपपेशलमाधुर्य
सौगन्ध्यप्रियदर्शनः
स्त्रीणां
प्रियतमो नित्यं मत्तः स्वपुरलम्पटः ॥ ७० ॥
एकदा
देवसत्रे तु गन्धर्वाप्सरसां गणाः
उपहूता
विश्वसृग्भिर्हरिगाथोपगायने ॥ ७१ ॥
अहं
च गायंस्तद्विद्वान्स्त्रीभिः परिवृतो गतः
ज्ञात्वा
विश्वसृजस्तन्मे हेलनं शेपुरोजसा
याहि
त्वं शूद्र तामाशु नष्टश्रीः कृतहेलनः ॥ ७२ ॥
तावद्दास्यामहं
जज्ञे तत्रापि ब्रह्मवादिनाम्
शुश्रूषयानुषङ्गेण
प्राप्तोऽहं ब्रह्मपुत्रताम् ॥ ७३ ॥
धर्मस्ते
गृहमेधीयो वर्णितः पापनाशनः
गृहस्थो
येन पदवीमञ्जसा न्यासिनामियात् ॥ ७४ ॥
पूर्वजन्म में
इसके पहलेके महाकल्प में मैं एक गन्धर्व था। मेरा नाम था उपबर्हण और गन्धर्वोंमें
मेरा बड़ा सम्मान था ॥ ६९ ॥ मेरी सुन्दरता, सुकुमारता और
मधुरता अपूर्व थी। मेरे शरीरमेंसे सुगन्धि निकला करती और देखनेमें मैं बहुत अच्छा
लगता। स्त्रियाँ मुझसे बहुत प्रेम करतीं और मैं सदा प्रमादमें ही रहता। मैं अत्यन्त
विलासी था ॥ ७० ॥ एक बार देवताओंके यहाँ ज्ञानसत्र हुआ। उसमें बड़े-बड़े प्रजापति
आये थे। भगवान्की लीलाका गान करनेके लिये उन लोगोंने गन्धर्व और अप्सराओंको
बुलाया ॥ ७१ ॥ मैं जानता था कि वह संतोंका समाज है और वहाँ भगवान्की लीलाका ही
गान होता है। फिर भी मैं स्त्रियोंके साथ लौकिक गीतोंका गान करता हुआ उन्मत्तकी
तरह वहाँ जा पहुँचा। देवताओंने देखा कि यह तो हमलोगोंका अनादर कर रहा है। उन्होंने
अपनी शक्तिसे मुझे शाप दे दिया कि ‘तुमने हमलोगोंकी अवहेलना
की है, इसलिये तुम्हारी सारी सौन्दर्य- सम्पत्ति नष्ट हो जाय
और तुम शीघ्र ही शूद्र हो जाओ’ ॥ ७२ ॥ उनके शापसे मैं दासीका
पुत्र हुआ। किन्तु उस शूद्र-जीवनमें किये हुए महात्माओंके सत्सङ्ग और
सेवा-शुश्रूषाके प्रभावसे मैं दूसरे जन्ममें ब्रह्माजीका पुत्र हुआ ॥ ७३ ॥ संतोंकी
अवहेलना और सेवाका यह मेरा प्रत्यक्ष अनुभव है। संत-सेवासे ही भगवान् प्रसन्न
होते हैं। मैंने तुम्हें गृहस्थोंका पापनाशक धर्म बतला दिया। इस धर्मके आचरणसे
गृहस्थ भी अनायास ही संन्यासियोंको मिलनेवाला परमपद प्राप्त कर लेता है ॥ ७४ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
🌼🍂🌹जय श्री हरि: !!🙏🙏
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