शुक्रवार, 30 अगस्त 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – तीसरा अध्याय..(पोस्ट०८)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – तीसरा अध्याय..(पोस्ट०८)

गजेन्द्र के द्वारा भगवान्‌ की स्तुति और उसका संकट से मुक्त होना

यं धर्मकामार्थविमुक्तिकामा
भजन्त इष्टां गतिमाप्नुवन्ति |
किं चाशिषो रात्यपि देहमव्ययं
करोतु मेऽदभ्रदयो विमोक्षणम् ||१९||
एकान्तिनो यस्य न कञ्चनार्थं
वाञ्छन्ति ये वै भगवत्प्रपन्नाः |
अत्यद्भुतं तच्चरितं सुमङ्गलं
गायन्त आनन्दसमुद्र मग्नाः ||२०||
तमक्षरं ब्रह्म परं परेश-
मव्यक्तमाध्यात्मिकयोगगम्यम्
अतीन्द्रियं सूक्ष्ममिवातिदूर-
मनन्तमाद्यं परिपूर्णमीडे ||२१||

धर्म, अर्थ, काम और मोक्षकी कामनासे मनुष्य उन्हींका भजन करके अपनी अभीष्ट वस्तु प्राप्त कर लेते हैं। इतना ही नहीं, वे उनको सभी प्रकारका सुख देते हैं और अपने ही जैसा अविनाशी पार्षद शरीर भी देते हैं। वे ही परम दयालु प्रभु मेरा उद्धार करें ॥ १९ ॥ जिनके अनन्य प्रेमी भक्तजन उन्हींकी शरणमें रहते हुए उनसे किसी भी वस्तुकीयहाँतक कि मोक्षकी भी अभिलाषा नहीं करते, केवल उनकी परम दिव्य मङ्गलमयी लीलाओंका गान करते हुए आनन्दके समुद्रमें निमग्र रहते हैं ॥ २० ॥ जो अविनाशी, सर्वशक्तिमान्, अव्यक्त, इन्द्रियातीत और अत्यन्त सूक्ष्म हैं; जो अत्यन्त निकट रहनेपर भी बहुत दूर जान पड़ते हैं; जो आध्यात्मिक योग अर्थात् ज्ञानयोग या भक्तियोगके द्वारा प्राप्त होते हैंउन्हीं आदिपुरुष, अनन्त एवं परिपूर्ण परब्रह्म परमात्माकी मैं स्तुति करता हूँ ॥ २१ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




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