॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम
स्कन्ध – पंद्रहवाँ
अध्याय..(पोस्ट११)
गृहस्थोंके
लिये मोक्षधर्मका वर्णन
प्रवृत्तं
च निवृत्तं च द्विविधं कर्म वैदिकम्
आवर्तते
प्रवृत्तेन निवृत्तेनाश्नुतेऽमृतम् ॥ ४७ ॥
हिंस्रं
द्रव्यमयं काम्यमग्निहोत्राद्यशान्तिदम्
दर्शश्च
पूर्णमासश्च चातुर्मास्यं पशुः सुतः ॥ ४८ ॥
एतदिष्टं
प्रवृत्ताख्यं हुतं प्रहुतमेव च
पूर्तं
सुरालयाराम कूपा जीव्यादिलक्षणम् ॥ ४९ ॥
द्रव्यसूक्ष्मविपाकश्च
धूमो रात्रिरपक्षयः
अयनं
दक्षिणं सोमो दर्श ओषधिवीरुधः ॥ ५० ॥
अन्नं
रेत इति क्ष्मेश पितृयानं पुनर्भवः
एकैकश्येनानुपूर्वं
भूत्वा भूत्वेह जायते ॥ ५१ ॥
वैदिक
कर्म दो प्रकारके हैं—एक तो वे जो वृत्तियोंको उनके विषयोंकी ओर ले जाते हैं—प्रवृत्तिपरक और दूसरे वे जो वृत्तियोंको उनके विषयोंकी ओरसे लौटाकर शान्त
एवं आत्मसाक्षात्कारके योग्य बना देते हैं—निवृत्तिपरक।
प्रवृत्तिपरक कर्ममार्गसे बार-बार जन्म-मृत्युकी प्राप्ति होती है और निवृत्तिपरक
भक्तिमार्ग या ज्ञानमार्गके द्वारा परमात्माकी प्राप्ति होती है ॥ ४७ ॥
श्येनयागादि हिंसामय कर्म, अग्निहोत्र, दर्श, पूर्णमास, चातुर्मास्य,
पशुयाग, सोमयाग, वैश्वदेव,
बलिहरण आदि द्रव्यमय कर्म ‘इष्ट’ कहलाते हैं और देवालय, बगीचा, कुआँ
आदि बनवाना तथा प्याऊ आदि लगाना ‘पूर्त्तकर्म’ हैं। ये सभी प्रवृत्तिपरक कर्म हैं और सकामभावसे युक्त होनेपर अशान्तिके
ही कारण बनते हैं ॥ ४८-४९ ॥ प्रवृत्तिपरायण पुरुष मरनेपर चरु-पुरोडाशादि
यज्ञसम्बन्धी द्रव्योंके सूक्ष्मभागसे बना हुआ शरीर धारणकर धूमाभिमानी देवताओं के
पास जाता है। फिर क्रमश: रात्रि, कृष्णपक्ष और दक्षिणायन के
अभिमानी देवताओं के पास जाकर चन्द्रलोकमें पहुँचता है। वहाँसे भोग समाप्त होनेपर
अमावस्याके चन्द्रमाके समान क्षीण होकर वृष्टिद्वारा क्रमश: ओषधि, लता, अन्न और वीर्यके रूपमें परिणत होकर पितृयान
मार्गसे पुन: संसारमें ही जन्म लेता है ॥ ५०-५१ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
💐🌺💐जय श्री हरि: !!🙏🙏
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