॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – छठा अध्याय..(पोस्ट०५)
देवताओं और दैत्योंका मिलकर समुद्रमन्थन
के लिये उद्योग करना
स
त्वं विधत्स्वाखिललोकपाला
वयं यदर्थास्तव पादमूलम् ।
समागतास्ते
बहिरन्तरात्मन्
किं वान्यविज्ञाप्यमशेषसाक्षिणः ॥ १४ ॥
अहं
गिरित्रश्च सुरादयो ये
दक्षादयोऽग्नेरिव केतवस्ते ।
किं
वा विदामेश पृथग्विभाता
विधत्स्व शं नो द्विजदेवमंत्रम् ॥ १५ ॥
आप ही हमारे बाहर और भीतर के आत्मा हैं। हम सब लोकपाल जिस
उद्देश्य से आपके चरणों की शरणमें आये हैं, उसे आप कृपा करके पूर्ण कीजिये। आप सबके साक्षी हैं, अत: इस विषय में हम लोग आपसे और क्या निवेदन करें ॥ १४ ॥
प्रभो ! मैं शङ्कर जी,
अन्य देवता, ऋषि और दक्ष आदि प्रजापति—सब-के-सब अग्नि
से अलग हुई चिनगारी की तरह आपके ही अंश
हैं और अपनेको आपसे अलग मानते हैं। ऐसी स्थितिमें प्रभो ! हमलोग समझ ही क्या सकते
हैं। ब्राह्मण और देवताओंके कल्याणके लिये जो कुछ करना आवश्यक हो, उसका आदेश आप ही दीजिये और आप वैसा स्वयं कर भी लीजिये ॥ १५
॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
जय श्री हरि
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जवाब देंहटाएंॐ नमो भगवते वासुदेवाय
नारायण नारायण नारायण नारायण