॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – छठा अध्याय..(पोस्ट०६)
देवताओं और दैत्योंका मिलकर समुद्रमन्थन
के लिये उद्योग करना
श्रीशुक
उवाच –
एवं
विरिञ्चादिभिरीडितस्तद्
विज्ञाय तेषां हृदयं तथैव ।
जगाद
जीमूतगभीरया गिरा
बद्धाञ्जलीन् संवृतसर्वकारकान् ॥ १६ ॥
एक
एवेश्वरस्तस्मिन् सुरकार्ये सुरेश्वरः ।
विहर्तुकामस्तानाह
समुद्रोन्मथनादिभिः ॥ १७ ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—ब्रह्मा आदि देवताओं ने इस प्रकार स्तुति करके अपनी सारी इन्द्रियाँ रोक लीं
और सब बड़ी सावधानी के साथ हाथ जोडक़र खड़े हो गये। उनकी स्तुति सुनकर और उसी
प्रकार उनके हृदय की बात जानकर भगवान् मेघ के समान गम्भीर वाणी से बोले ॥ १६ ॥
परीक्षित् ! समस्त देवताओंके तथा जगत् के एकमात्र स्वामी भगवान् अकेले ही उनका
सब कार्य करने में समर्थ थे, फिर भी
समुद्र-मन्थन आदि लीलाओंके द्वारा विहार करनेकी इच्छासे वे देवताओं को सम्बोधित
करके इस प्रकार कहने लगे ॥ १७ ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय 🙏🌺🌹🙏
जवाब देंहटाएंजय श्री हरि
जवाब देंहटाएंॐ नमो भगवते वासुदेवाय
जवाब देंहटाएं🌼🌿🌹जय श्री हरि: !!🙏🙏
जवाब देंहटाएंॐ नमो भगवते वासुदेवाय
नारायण नारायण नारायण नारायण