॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)
समुद्रसे अमृतका प्रकट होना और भगवान्
का मोहिनी-अवतार ग्रहण करना
एवं विमृश्याव्यभिचारिसद्गुणै-
र्वरं निजैकाश्रयतयागुणाश्रयम्
वव्रे वरं सर्वगुणैरपेक्षितं
रमा मुकुन्दं निरपेक्षमीप्सितम् ॥ २३ ॥
तस्यांसदेश उशतीं नवकञ्जमालां
माद्यन्मधुव्रतवरूथगिरोपघुष्टाम्
तस्थौ निधाय निकटे तदुरः स्वधाम
सव्रीडहासविकसन्नयनेन याता ॥ २४ ॥
इस प्रकार सोच-विचारकर अन्तमें श्रीलक्ष्मीजी ने अपने चिर
अभीष्ट भगवान्को ही वरके रूपमें चुना; क्योंकि उनमें समस्त सद्गुण नित्य निवास करते हैं। प्राकृत गुण उनका स्पर्श
नहीं कर सकते और अणिमा आदि समस्त गुण उनको चाहा करते हैं; परंतु वे किसीकी भी अपेक्षा नहीं रखते। वास्तवमें
लक्ष्मीजीके एकमात्र आश्रय भगवान् ही हैं। इसी से उन्होंने उन्हींको वरण किया ॥
२३ ॥ लक्ष्मीजी ने भगवान् के गले में वह नवीन कमलों की सुन्दर माला पहना दी, जिसके चारों ओर झुंड-के-झुंड मतवाले मधुकर गुंजार कर रहे
थे। इसके बाद लज्जापूर्ण मुसकान और प्रेमपूर्ण चितवनसे अपने निवासस्थान उनके
वक्ष:स्थलको देखती हुर्ईं वे उनके पास ही खड़ी हो गयीं ॥ २४ ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
Jay shree Krishna
जवाब देंहटाएंजय श्री सीताराम जय हो प्रभु जय
जवाब देंहटाएंॐ श्री हरि शरणं मम: 🙏🌺🌹🙏
जवाब देंहटाएंOm namo narayanay 🙏🙏🙏
जवाब देंहटाएं🌹💐🥀जय श्री हरि: !!🙏🙏
जवाब देंहटाएंॐ नमो भगवते वासुदेवाय
नारायण नारायण नारायण हरि नारायण 🙏🙏🙏