॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)
समुद्रसे अमृतका प्रकट होना और भगवान्
का मोहिनी-अवतार ग्रहण करना
नूनं तपो यस्य न मन्युनिर्जयो
ज्ञानं क्वचित्तच्च न सङ्गवर्जितम्
कश्चिन्महांस्तस्य न कामनिर्जयः
स ईश्वरः किं परतो व्यपाश्रयः ॥ २० ॥
धर्मः क्वचित्तत्र न भूतसौहृदं
त्यागः क्वचित्तत्र न मुक्तिकारणम्
वीर्यं न पुंसोऽस्त्यजवेगनिष्कृतं
न हि द्वितीयो गुणसङ्गवर्जितः ॥ २१ ॥
क्वचिच्चिरायुर्न हि शीलमङ्गलं
क्वचित्तदप्यस्ति न वेद्यमायुषः
यत्रोभयं कुत्र च सोऽप्यमङ्गलः
सुमङ्गलः कश्च न काङ्क्षते हि माम् ॥ २२ ॥
(वे लक्ष्मी जी मन-ही-मन सोचने लगीं कि) कोई तपस्वी तो हैं, परंतु उन्होंने क्रोधपर विजय नहीं प्राप्त की है।
किन्हींमें ज्ञान तो है,
परंतु वे पूरे अनासक्त नहीं हैं। कोई-कोई हैं तो बड़े
महत्त्वशाली,
परंतु वे कामको नहीं जीत सके हैं। किन्हींमें ऐश्वर्य भी
बहुत है;
परंतु वह ऐश्वर्य ही किस कामका, जब उन्हें दूसरोंका आश्रय लेना पड़ता है ॥ २० ॥ किन्हींमें
धर्माचरण तो है;
परंतु प्राणियोंके प्रति वे प्रेमका पूरा बर्ताव नहीं करते।
त्याग तो है,
परंतु केवल त्याग ही तो मुक्तिका कारण नहीं है।
किन्हीं-किन्हींमें वीरता तो अवश्य है, परंतु वे भी कालके पंजेसे बाहर नहीं हैं। अवश्य ही कुछ महात्माओंमें
विषयासक्ति नहीं है,
परंतु वे तो निरन्तर अद्वैत-समाधिमें ही तल्लीन रहते हैं ॥
२१ ॥ किसी-किसी ऋषिने आयु तो बहुत लंबी प्राप्त कर ली है, परंतु उनका शील-मङ्गल भी मेरे योग्य नहीं है। किन्हींमें
शील-मङ्गल भी है परंतु उनकी आयुका कुछ ठिकाना नहीं। अवश्य ही किन्हींमें दोनों ही
बातें हैं,
परंतु वे अमङ्गल-वेषमें रहते हैं। रहे एक भगवान् विष्णु।
उनमें सभी मङ्गलमय गुण नित्य निवास करते हैं, परंतु वे मुझे चाहते ही नहीं ॥ २२ ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
जवाब देंहटाएंजय श्री हरि
जवाब देंहटाएंJay shree Krishna
जवाब देंहटाएंOm namo narayanay 🙏🙏🙏
जवाब देंहटाएंJay shree Krishna
जवाब देंहटाएं🌼🍂🌹जय श्री हरि: !!🙏🙏
जवाब देंहटाएंॐ नमो भगवते वासुदेवाय
हे सर्वेश्वर हे योगेश्वर हे अनंत तुम्हें
सहस्त्रों सहस्त्रों कोटिश: वंदन
शत शत प्रणाम