॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)
समुद्रमन्थन का आरम्भ और भगवान् शङ्कर का विषपान
उपर्यगेन्द्रं गिरिराडिवान्य
आक्रम्य हस्तेन सहस्रबाहुः
तस्थौ दिवि ब्रह्मभवेन्द्र मुख्यै-
रभिष्टुवद्भिः सुमनोऽभिवृष्टः ॥ १२ ॥
उपर्यधश्चात्मनि गोत्रनेत्रयोः
परेण ते प्राविशता समेधिताः
ममन्थुरब्धिं तरसा मदोत्कटा
महाद्रिणा क्षोभितनक्रचक्रम् ॥ १३ ॥
अहीन्द्र साहस्रकठोरदृङ्मुख-
श्वासाग्निधूमाहतवर्चसोऽसुराः
पौलोमकालेयबलील्वलादयो
दवाग्निदग्धाः सरला इवाभवन् ॥ १४ ॥
देवांश्च तच्छ्वासशिखाहतप्रभान्-
धूम्राम्बरस्रग्वरकञ्चुकाननान्
समभ्यवर्षन्भगवद्वशा घना
ववुः समुद्रोर्म्युपगूढवायवः ॥ १५ ॥
इधर पर्वतके ऊपर दूसरे पर्वतके समान बनकर सहस्रबाहु भगवान्
अपने हाथोंसे उसे दबाकर स्थित हो गये। उस समय आकाशमें ब्रह्मा, शङ्कर, इन्द्र आदि
उनकी स्तुति और उनके ऊपर पुष्पोंकी वर्षा करने लगे ॥ १२ ॥ इस प्रकार भगवान् ने
पर्वतके ऊपर उसको दबा रखनेवालेके रूपमें, नीचे उसके आधार कच्छपके रूपमें, देवता और असुरों के शरीर में उनकी शक्ति के रूपमें, पर्वत में दृढ़ताके रूपमें और नेती बने हुए वासुकिनाग में निद्रा के रूपमें—जिससे उसे कष्ट न हो—प्रवेश करके सब ओरसे सबको शक्तिसम्पन्न कर दिया। अब वे अपने बलके मदसे उन्मत्त
होकर मन्दराचलके द्वारा बड़े वेगसे समुद्रमन्थन करने लगे। उस समय समुद्र और उसमें
रहनेवाले मगर,
मछली आदि जीव क्षुब्ध हो गये ॥ १३ ॥ नागराज वासुकिके हजारों
कठोर नेत्र,
मुख और श्वासोंसे विषकी आग निकलने लगी। उनके धूएँसे पौलोम, कालेय, बलि, इल्वल आदि असुर निस्तेज हो गये। उस समय वे ऐसे जान पड़ते थे, मानो दावानलसे झुलसे हुए साखूके पेड़ खड़े हों ॥ १४ ॥ देवता
भी उससे न बच सके। वासुकिके श्वासकी लपटोंसे उनका भी तेज फीका पड़ गया। वस्त्र, माला, कवच एवं मुख
धूमिल हो गये। उनकी यह दशा देखकर भगवान्की प्रेरणासे बादल देवताओंके ऊपर वर्षा
करने लगे एवं वायु समुद्रकी तरङ्गोंका स्पर्श करके शीतलता और सुगन्धिका सञ्चार
करने लगी ॥ १५ ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
जवाब देंहटाएंजय श्री हरि जय हो प्रभु जय हो
जवाब देंहटाएं🌹🍂🥀जय श्री हरि: !!🙏🙏
हटाएंॐ नमो भगवते वासुदेवाय
नारायण नारायण नारायण नारायण
🥀🌼🌹जय श्री हरि: !!🙏🙏
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