॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – उन्नीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)
भगवान् वामन का बलि से तीन पग पृथ्वी माँगना,
बलि का वचन देना और शुक्राचार्यजी का उन्हें रोकना
श्रीभगवानुवाच -
यावन्तो विषयाः प्रेष्ठाः त्रिलोक्यां अजितेन्द्रियम् ।
न शक्नुवन्ति ते सर्वे प्रतिपूरयितुं नृप ॥ २१ ॥
त्रिभिः क्रमैः असन्तुष्टो द्वीपेनापि न पूर्यते ।
नववर्षसमेतेन सप्तद्वीपवरेच्छया ॥ २२ ॥
सप्तद्वीपाधिपतयो नृपा वैन्यगयादयः ।
अर्थैः कामैर्गता नान्तं तृष्णाया इति नः श्रुतम् ॥ २३ ॥
यदृच्छयोपपन्नेन सन्तुष्टो वर्तते सुखम् ।
नासन्तुष्टः त्रिभिर्लोकैः अजितात्मोपसादितैः ॥ २४ ॥
पुंसोऽयं संसृतेर्हेतुः असन्तोषोऽर्थकामयोः ।
यदृच्छयोपपन्नेन सन्तोषो मुक्तये स्मृतः ॥ २५ ॥
यदृच्छालाभतुष्टस्य तेजो विप्रस्य वर्धते ।
तत्प्रशाम्यति असन्तोषाद् अम्भसेवाशुशुक्षणिः ॥ २६ ॥
तस्मात्त्रीणि पदान्येव वृणे त्वद् वरदर्षभात् ।
एतावतैव सिद्धोऽहं वित्तं यावत् प्रयोजनम् ॥ २७ ॥
श्रीभगवान् ने कहा—राजन् ! संसार के सब-के-सब प्यारे विषय एक मनुष्य की कामनाओं को भी पूर्ण करने
में समर्थ नहीं हैं,
यदि वह अपनी इन्द्रियों को वश में रखनेवाला—सन्तोषी न हो ॥ २१ ॥ जो तीन पग भूमि से सन्तोष नहीं कर लेता, उसे नौ वर्षों से युक्त एक द्वीप भी दे दिया जाय तो भी वह
सन्तुष्ट नहीं हो सकता। क्योंकि उसके मनमें सातों द्वीप पानेकी इच्छा बनी ही रहेगी
॥ २२ ॥ मैंने सुना है कि पृथु, गय आदि नरेश
सातों द्वीपोंके अधिपति थे;
परंतु उतने धन और भोगकी सामग्रियोंके मिलनेपर भी वे
तृष्णाका पार न पा सके ॥ २३ ॥ जो कुछ प्रारब्धसे मिल जाय, उसीसे सन्तुष्ट हो रहनेवाला पुरुष अपना जीवन सुखसे व्यतीत
करता है। परंतु अपनी इन्द्रियोंको वशमें न रखनेवाला तीनों लोकोंका राज्य पानेपर भी
दुखी ही रहता है। क्योंकि उसके हृदयमें असन्तोषकी आग धधकती रहती है ॥ २४ ॥ धन और
भोगोंसे सन्तोष न होना ही जीवके जन्म-मृत्युके चक्करमें गिरनेका कारण है। तथा जो
कुछ प्राप्त हो जाय,
उसीमें सन्तोष कर लेना मुक्तिका कारण है ॥ २५ ॥ जो ब्राह्मण
स्वयंप्राप्त वस्तुसे ही सन्तुष्ट हो रहता है, उसके तेजकी वृद्धि होती है। उसके असन्तोषी हो जानेपर उसका तेज वैसे ही शान्त
हो जाता है जैसे जलसे अग्रि ॥ २६ ॥ इसमें सन्देह नहीं कि आप मुँहमाँगी वस्तु
देनेवालोंमें शिरोमणि हैं। इसलिये मैं आपसे केवल तीन पग भूमि ही माँगता हूँ। इतने से
ही मेरा काम बन जायगा। धन उतना ही संग्रह करना चाहिये, जितने की आवश्यकता हो ॥ २७ ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से