॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – बारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)
मोहिनीरूप को देखकर महादेवजी का मोहित होना
श्रीशुक उवाच -
एवं अभ्यर्थितो विष्णुः भगवान् शूलपाणिना ।
प्रहस्य भावगम्भीरं गिरिशं प्रत्यभाषत ॥ १४ ॥
श्रीभगवानुवाच -
कौतूहलाय दैत्यानां योषिद्वेषो मया कृतः ।
पश्यता सुरकार्याणि गते पीयूषभाजने ॥ १५ ॥
तत्तेऽहं दर्शयिष्यामि दिदृक्षोः सुरसत्तम ।
कामिनां बहु मन्तव्यं संकल्पप्रभवोदयम् ॥ १६ ॥
श्रीशुक उवाच -
इति ब्रुवाणो भगवान् तत्रैवान्तरधीयत ।
सर्वतश्चारयन् चक्षुः भव आस्ते सहोमया ॥ १७ ॥
ततो ददर्शोपवने वरस्त्रियं
विचित्रपुष्पारुणपल्लवद्रुमे ।
विक्रीडतीं कन्दुकलीलया लसद्
दुकूलपर्यस्तनितम्बमेखलाम् ॥ १८ ॥
आवर्तनोद्वर्तनकम्पितस्तन
प्रकृष्टहारोरुभरैः पदे पदे ।
प्रभज्यमानामिव मध्यतश्चलउ
पदप्रवालं
नयतीं ततस्ततः ॥ १९ ॥
दिक्षु भ्रमत्कन्दुकचापलैर्भृशं
प्रोद्विग्नतारायतलोललोचनाम् ।
स्वकर्णविभ्राजितकुण्डलोल्लसत्
कपोलनीलालकमण्डिताननाम् ॥ २० ॥
श्लथद् दुकूलं कबरीं च विच्युतां
सन्नह्यतीं
वामकरेण वल्गुना ।
विनिघ्नतीमन्यकरेण कन्दुकं
विमोहयन्तीं
जगदात्ममायया ॥ २१ ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—जब भगवान् शङ्करने विष्णुभगवान्से यह प्रार्थना की, तब वे गम्भीर भावसे हँसकर शङ्करजीसे बोले ॥ १४ ॥
श्रीविष्णुभगवान्ने कहा—शङ्करजी ! उस समय अमृतका कलश दैत्योंके हाथमें चला गया था। अत: देवताओंका काम
बनानेके लिये और दैत्योंका मन एक नये कौतूहलकी ओर खींच लेनेके लिये ही मैंने वह
स्त्रीरूप धारण किया था ॥ १५ ॥ देवशिरोमणे ! आप उसे देखना चाहते हैं, इसलिये मैं आपको वह रूप दिखाऊँगा। परंतु वह रूप तो कामी
पुरुषोंका ही आदरणीय है,
क्योंकि वह कामभावको उत्तेजित करनेवाला है ॥ १६ ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—इस तरह कहते-कहते विष्णुभगवान् वहीं अन्तर्धान हो गये और भगवान् शङ्कर सती
देवीके साथ चारों ओर दृष्टि दौड़ाते हुए वहीं बैठे रहे ॥ १७ ॥ इतनेमें ही उन्होंने
देखा कि सामने एक बड़ा सुन्दर उपवन है। उसमें भाँति-भाँतिके वृक्ष लग रहे हैं, जो रंग-बिरंगे फूल और लाल-लाल कोंपलोंसे भरे-पूरे हैं।
उन्होंने यह भी देखा कि उस उपवनमें एक सुन्दरी स्त्री गेंद उछाल-उछालकर खेल रही
है। वह बड़ी ही सुन्दर साड़ी पहने हुए है और उसकी कमरमें करधनीकी लडिय़ाँ लटक रही
हैं ॥ १८ ॥ गेंदके उछालने और लपककर पकडऩेसे उसके स्तन और उनपर पड़े हुए हार हिल
रहे हैं। ऐसा जान पड़ता था,
मानो इनके भारसे उसकी पतली कमर पग-पगपर टूटते- टूटते बच
जाती है। वह अपने लाल-लाल पल्लवोंके समान सुकुमार चरणोंसे बड़ी कलाके साथ
ठुमुक-ठुमुक चल रही थी ॥ १९ ॥ उछलता हुआ गेंद जब इधर-उधर छलक जाता था, तब वह लपककर उसे रोक लेती थी। इससे उसकी बड़ी-बड़ी चञ्चल
आँखें कुछ उद्विग्र-सी हो रही थीं। उसके कपोलोंपर कानोंके कुण्डलोंकी आभा जगमगा
रही थी और घुँघराली काली-काली अलकें उनपर लटक आती थीं, जिससे मुख और भी उल्लसित हो उठता था ॥ २० ॥ जब कभी साड़ी
सरक जाती और केशोंकी वेणी खुलने लगती, तब अपने अत्यन्त सुकुमार बायें हाथसे वह उन्हें सँभाल-सँवार लिया करती। उस समय
भी वह दाहिने हाथसे गेंद उछाल-उछालकर सारे जगत् को अपनी मायासे मोहित कर रही थी ॥ २१ ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
जवाब देंहटाएंजय श्री सीताराम जय हो प्रभु
जवाब देंहटाएंJay shree Krishna
जवाब देंहटाएंOm namo bhagawate vasudevay 🙏🙏🙏🙏
जवाब देंहटाएंJay shree Krishna
जवाब देंहटाएं🌷🍂🌸 जय श्री हरि: 🙏🙏
जवाब देंहटाएंॐ नमो भगवते वासुदेवाय
नारायण नारायण नारायण नारायण