गुरुवार, 10 अक्तूबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – बारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – बारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

मोहिनीरूप को देखकर महादेवजी का मोहित होना

श्रीशुक उवाच -
एवं अभ्यर्थितो विष्णुः भगवान् शूलपाणिना ।
प्रहस्य भावगम्भीरं गिरिशं प्रत्यभाषत ॥ १४ ॥

श्रीभगवानुवाच -
कौतूहलाय दैत्यानां योषिद्वेषो मया कृतः ।
पश्यता सुरकार्याणि गते पीयूषभाजने ॥ १५ ॥
तत्तेऽहं दर्शयिष्यामि दिदृक्षोः सुरसत्तम ।
कामिनां बहु मन्तव्यं संकल्पप्रभवोदयम् ॥ १६ ॥

श्रीशुक उवाच -
इति ब्रुवाणो भगवान् तत्रैवान्तरधीयत ।
सर्वतश्चारयन् चक्षुः भव आस्ते सहोमया ॥ १७ ॥
ततो ददर्शोपवने वरस्त्रियं
     विचित्रपुष्पारुणपल्लवद्रुमे ।
विक्रीडतीं कन्दुकलीलया लसद्
     दुकूलपर्यस्तनितम्बमेखलाम् ॥ १८ ॥
आवर्तनोद्वर्तनकम्पितस्तन
     प्रकृष्टहारोरुभरैः पदे पदे ।
प्रभज्यमानामिव मध्यतश्चलउ
     पदप्रवालं नयतीं ततस्ततः ॥ १९ ॥
दिक्षु भ्रमत्कन्दुकचापलैर्भृशं
     प्रोद्विग्नतारायतलोललोचनाम् ।
स्वकर्णविभ्राजितकुण्डलोल्लसत्
     कपोलनीलालकमण्डिताननाम् ॥ २० ॥
श्लथद् दुकूलं कबरीं च विच्युतां
     सन्नह्यतीं वामकरेण वल्गुना ।
विनिघ्नतीमन्यकरेण कन्दुकं
     विमोहयन्तीं जगदात्ममायया ॥ २१ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंजब भगवान्‌ शङ्करने विष्णुभगवान्‌से यह प्रार्थना की, तब वे गम्भीर भावसे हँसकर शङ्करजीसे बोले ॥ १४ ॥
श्रीविष्णुभगवान्‌ने कहाशङ्करजी ! उस समय अमृतका कलश दैत्योंके हाथमें चला गया था। अत: देवताओंका काम बनानेके लिये और दैत्योंका मन एक नये कौतूहलकी ओर खींच लेनेके लिये ही मैंने वह स्त्रीरूप धारण किया था ॥ १५ ॥ देवशिरोमणे ! आप उसे देखना चाहते हैं, इसलिये मैं आपको वह रूप दिखाऊँगा। परंतु वह रूप तो कामी पुरुषोंका ही आदरणीय है, क्योंकि वह कामभावको उत्तेजित करनेवाला है ॥ १६ ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैंइस तरह कहते-कहते विष्णुभगवान्‌ वहीं अन्तर्धान हो गये और भगवान्‌ शङ्कर सती देवीके साथ चारों ओर दृष्टि दौड़ाते हुए वहीं बैठे रहे ॥ १७ ॥ इतनेमें ही उन्होंने देखा कि सामने एक बड़ा सुन्दर उपवन है। उसमें भाँति-भाँतिके वृक्ष लग रहे हैं, जो रंग-बिरंगे फूल और लाल-लाल कोंपलोंसे भरे-पूरे हैं। उन्होंने यह भी देखा कि उस उपवनमें एक सुन्दरी स्त्री गेंद उछाल-उछालकर खेल रही है। वह बड़ी ही सुन्दर साड़ी पहने हुए है और उसकी कमरमें करधनीकी लडिय़ाँ लटक रही हैं ॥ १८ ॥ गेंदके उछालने और लपककर पकडऩेसे उसके स्तन और उनपर पड़े हुए हार हिल रहे हैं। ऐसा जान पड़ता था, मानो इनके भारसे उसकी पतली कमर पग-पगपर टूटते- टूटते बच जाती है। वह अपने लाल-लाल पल्लवोंके समान सुकुमार चरणोंसे बड़ी कलाके साथ ठुमुक-ठुमुक चल रही थी ॥ १९ ॥ उछलता हुआ गेंद जब इधर-उधर छलक जाता था, तब वह लपककर उसे रोक लेती थी। इससे उसकी बड़ी-बड़ी चञ्चल आँखें कुछ उद्विग्र-सी हो रही थीं। उसके कपोलोंपर कानोंके कुण्डलोंकी आभा जगमगा रही थी और घुँघराली काली-काली अलकें उनपर लटक आती थीं, जिससे मुख और भी उल्लसित हो उठता था ॥ २० ॥ जब कभी साड़ी सरक जाती और केशोंकी वेणी खुलने लगती, तब अपने अत्यन्त सुकुमार बायें हाथसे वह उन्हें सँभाल-सँवार लिया करती। उस समय भी वह दाहिने हाथसे गेंद उछाल-उछालकर सारे जगत् को  अपनी मायासे मोहित कर रही थी ॥ २१ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से





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