॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – बारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)
मोहिनीरूप को देखकर महादेवजी का मोहित होना
तां
वीक्ष्य देव इति कन्दुकलीलयेषद्
व्रीडास्फुटस्मितविसृष्टकटाक्षमुष्टः ।
स्त्रीप्रेक्षणप्रतिसमीक्षणविह्वलात्मा
नात्मानमन्तिक उमां स्वगणांश्च वेद ॥ २२ ॥
तस्याः
कराग्रात्स तु कन्दुको यदा
गतो विदूरं तमनुव्रजत्स्त्रियाः ।
वासः
ससूत्रं लघु मारुतोऽहरद्
भवस्य देवस्य किलानुपश्यतः ॥ २३ ॥
एवं
तां रुचिरापाङ्गीं दर्शनीयां मनोरमाम् ।
दृष्ट्वा
तस्यां मनश्चक्रे विषज्जन्त्यां भवः किल ॥ २४ ॥
तयापहृतविज्ञानः
तत्कृतस्मरविह्वलः ।
भवान्या
अपि पश्यन्त्या गतह्रीस्तत्पदं ययौ ॥ २५ ॥
सा
तं आयान्तमालोक्य विवस्त्रा व्रीडिता भृशम् ।
निलीयमाना
वृक्षेषु हसन्ती नान्वतिष्ठत ॥ २६ ॥
तां
अन्वगच्छद् भगवान् भवः प्रमुषितेन्द्रियः ।
कामस्य
च वशं नीतः करेणुमिव यूथपः ॥ २७ ॥
सोऽनुव्रज्यातिवेगेन
गृहीत्वानिच्छतीं स्त्रियम् ।
केशबन्ध
उपानीय बाहुभ्यां परिषस्वजे ॥ २८ ॥
सोपगूढा
भगवता करिणा करिणी यथा ।
इतस्ततः
प्रसर्पन्ती विप्रकीर्णशिरोरुहा ॥ २९ ॥
गेंदसे खेलते-खेलते उसने तनिक सलज्जभाव से मुसकराकर तिरछी
नजर से शङ्करजी की ओर देखा। बस, उनका मन हाथसे
निकल गया। वे मोहिनीको निहारने और उसकी चितवनके रसमें डूबकर इतने विह्वल हो गये कि
उन्हें अपने-आपकी भी सुधि न रही। फिर पास बैठी हुई सती और गणोंकी तो याद ही कैसे
रहती ॥ २२ ॥ एक बार मोहिनीके हाथसे उछलकर गेंद थोड़ी दूर चला गया। वह भी उसीके
पीछे दौड़ी। उसी समय शङ्करजीके देखते-देखते वायुने उसकी झीनी-सी साड़ी करधनीके साथ
ही उड़ा ली ॥ २३ ॥ मोहिनीका एक-एक अङ्ग बड़ा ही रुचिकर और मनोरम था। जहाँ आँखें लग
जातीं,
लगी ही रहतीं। यही नहीं, मन भी वहीं रमण करने लगता। उसको इस दशामें देखकर भगवान् शङ्कर उसकी ओर
अत्यन्त आकृष्ट हो गये। उन्हें मोहिनी भी अपने प्रति आसक्त जान पड़ती थी ॥ २४ ॥
उसने शङ्करजीका विवेक छीन लिया। वे उसके हाव-भावोंसे कामातुर हो गये और भवानीके
सामने ही लज्जा छोडक़र उसकी ओर चल पड़े ॥ २५ ॥ मोहिनी वस्त्रहीन तो पहले ही हो चुकी
थी,
शङ्करजीको अपनी ओर आते देख बहुत लज्जित हो गयी। वह एक
वृक्षसे दूसरे वृक्षकी आड़में जाकर छिप जाती और हँसने लगती। परंतु कहीं ठहरती न थी
॥ २६ ॥ भगवान् शङ्करकी इन्द्रियाँ अपने वशमें नहीं रहीं, वे कामवश हो गये थे; अत: हथिनीके पीछे हाथीकी तरह उसके पीछे-पीछे दौडऩे लगे ॥ २७ ॥ उन्होंने
अत्यन्त वेगसे उसका पीछा करके पीछेसे उसका जूड़ा पकड़ लिया और उसकी इच्छा न होनेपर
भी उसे दोनों भुजाओंमें भरकर हृदयसे लगा लिया ॥ २८ ॥ जैसे हाथी हथिनीका आलिङ्गन
करता है,
वैसे ही भगवान् शङ्करने उसका आलिङ्गन किया। वह इधर-उधर
खिसककर छुड़ानेकी चेष्टा करने लगी, इसी छीना-झपटीमें उसके सिरके बाल बिखर गये ॥ २९ ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
Jay shreekrishna
जवाब देंहटाएंजय श्री सीताराम
जवाब देंहटाएंOm namo narayanay 🙏🙏🙏
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