शुक्रवार, 11 अक्तूबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – बारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – बारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

मोहिनीरूप को देखकर महादेवजी का मोहित होना

आत्मानं मोचयित्वाङ्‌ग सुरर्षभभुजान्तरात् ।
प्राद्रवत्सा पृथुश्रोणी माया देवविनिर्मिता ॥ ३० ॥
तस्यासौ पदवीं रुद्रो विष्णोरद्‍भुतकर्मणः ।
प्रत्यपद्यत कामेन वैरिणेव विनिर्जितः ॥ ३१ ॥
तस्यानुधावतो रेतः चस्कन्दामोघरेतसः ।
शुष्मिणो यूथपस्येव वासितामनुधावतः ॥ ३२ ॥
यत्र यत्रापतन् मह्यां रेतस्तस्य महात्मनः ।
तानि रूप्यस्य हेम्नश्च क्षेत्राण्यासन् महीपते ॥ ३३ ॥
सरित्सरःसु शैलेषु वनेषु उपवनेषु च ।
यत्र क्व चासन् ऋषयः तत्र सन्निहितो हरः ॥ ३४ ॥
स्कन्ने रेतसि सोऽपश्यत् आत्मानं देवमायया ।
जडीकृतं नृपश्रेष्ठ सन्न्यवर्तत कश्मलात् ॥ ३५ ॥
अथ अवगतमाहात्म्य आत्मनो जगदात्मनः ।
अपरिज्ञेयवीर्यस्य न मेने तदु हाद्‍भुतम् ॥ ३६ ॥
तमविक्लवमव्रीडं आलक्ष्य मधुसूदनः ।
उवाच परमप्रीतो बिभ्रत् स्वां पौरुषीं तनुम् ॥ ३७ ॥

वास्तव में वह सुन्दरी भगवान्‌ की रची हुई माया ही थी, इससे उसने किसी प्रकार शङ्करजी के भुजपाश से अपनेको छुड़ा लिया और बड़े वेगसे भागी ॥ ३० ॥ भगवान्‌ शङ्कर भी उन मोहिनीवेषधारी अद्भुतकर्मा भगवान्‌ विष्णुके पीछे-पीछे दौडऩे लगे। उस समय ऐसा जान पड़ता था, मानो उनके शत्रु कामदेवने इस समय उनपर विजय प्राप्त कर ली है ॥ ३१ ॥ कामुक हथिनी के पीछे दौडऩेवाले मदोन्मत्त हाथी के समान वे मोहिनी के पीछे-पीछे दौड़ रह थे। यद्यपि भगवान्‌ शङ्कर का वीर्य अमोघ है, फिर भी मोहिनी की मायासे वह स्खलित हो गया ॥ ३२ ॥ भगवान्‌ शङ्करका वीर्य पृथ्वीपर जहाँ-जहाँ गिरा, वहाँ-वहाँ सोने-चाँदीकी खानें बन गयीं ॥ ३३ ॥ परीक्षित्‌ ! नदी, सरोवर, पर्वत, वन और उपवनमें एवं जहाँ-जहाँ ऋषि-मुनि निवास करते थे, वहाँ-वहाँ मोहिनीके पीछे-पीछे भगवान्‌ शङ्कर गये थे ॥ ३४ ॥ परीक्षित्‌ ! वीर्यपात हो जानेके बाद उन्हें अपनी स्मृति हुई। उन्होंने देखा कि अरे, भगवान्‌ की मायाने तो मुझे खूब छकाया ! वे तुरंत उस दु:खद प्रसङ्ग से अलग हो गये ॥ ३५ ॥ इसके बाद आत्मस्वरूप सर्वात्मा भगवान्‌ की यह महिमा जानकर उन्हें कोई आश्चर्य नहीं हुआ। वे जानते थे कि भला, भगवान्‌की शक्तियोंका पार कौन पा सकता है ॥ ३६ ॥ भगवान्‌ने देखा कि भगवान्‌ शङ्करको इससे विषाद या लज्जा नहीं हुई है, तब वे पुरुष-शरीर धारण करके फिर प्रकट हो गये और बड़ी प्रसन्नतासे उनसे कहने लगे ॥ ३७ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



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