॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – बारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)
मोहिनीरूप को देखकर महादेवजी का मोहित होना
एकस्त्वमेव
सदसद् द्वयमद्वयं च
स्वर्णं कृताकृतमिवेह न वस्तुभेदः ।
अज्ञानतस्त्वयि
जनैर्विहितो विकल्पो ।
यस्माद् गुणव्यतिकरो निरुपाधिकस्य ॥ ८ ॥
त्वां
ब्रह्म केचिदवयन्त्युत धर्ममेके
एके परं सदसतोः पुरुषं परेशम् ।
अन्येऽवयन्ति
नवशक्तियुतं परं त्वां
केचिन्महापुरुषमव्ययमात्मतन्त्रम् ॥ ९ ॥
नाहं
परायुर्ॠषयो न मरीचिमुख्या
जानन्ति यद्विरचितं खलु सत्त्वसर्गाः ।
यन्मायया
मुषितचेतस ईश दैत्य
मर्त्यादयः किमुत शश्वदभद्रवृत्ताः ॥ १० ॥
स
त्वं समीहितमदः स्थितिजन्मनाशं
भूतेहितं च जगतो भवबन्धमोक्षौ ।
वायुर्यथा
विशति खं च चराचराख्यं
सर्वं तदात्मकतयावगमोऽवरुन्त्से ॥ ११ ॥
अवतारा
मया दृष्टा रममाणस्य ते गुणैः ।
सोऽहं
तद् द्रष्टुमिच्छामि यत्ते योषिद् वपुर्धृतम् ॥ १२ ॥
येन
सम्मोहिता दैत्याः पायिताश्चामृतं सुराः ।
तद्
दिदृक्षव आयाताः परं कौतूहलं हि नः ॥ १३ ॥
(श्रीमहादेवजी भगवान् श्रीहरिसे कहरहे हैं) स्वामिन् !
कार्य और कारण,
द्वैत और अद्वैत—जो कुछ है,
वह सब एकमात्र आप ही हैं; ठीक वैसे ही जैसे आभूषणोंके रूपमें स्थित सुवर्ण और मूल सुवर्णमें कोई अन्तर
नहीं है,
दोनों एक ही वस्तु हैं। लोगोंने आपके वास्तविक स्वरूपको न
जाननेके कारण आपमें नाना प्रकारके भेदभाव और विकल्पोंकी कल्पना कर रखी है। यही
कारण है कि आपमें किसी प्रकारकी उपाधि न होनेपर भी गुणोंको लेकर भेदकी प्रतीति
होती है ॥ ८ ॥ प्रभो ! कोई-कोई आपको ब्रह्म समझते हैं, तो दूसरे आपको धर्म कहकर वर्णन करते हैं। इसी प्रकार कोई
आपको प्रकृति और पुरुषसे परे परमेश्वर मानते हैं तो कोई विमला, उत्कॢषणी, ज्ञाना, क्रिया, योगा, प्रह्वी, सत्या, ईशाना और अनुग्रहा—इन नौ शक्तियोंसे युक्त परम पुरुष तथा दूसरे क्लेश-कर्म आदिके बन्धनसे रहित, पूर्वजोंके भी पूर्वज, अविनाशी पुरुषविशेषके रूपमें मानते हैं ॥ ९ ॥ प्रभो ! मैं, ब्रह्मा और मरीचि आदि ऋषि—जो सत्त्वगुणकी सृष्टिके अन्तर्गत हैं—जब आपकी बनायी हुई सृष्टिका भी रहस्य नहीं जान पाते, तब आपको तो जान ही कैसे सकते हैं। फिर जिनका चित्त मायाने
अपने वशमें कर रखा है और जो सर्वदा रजोगुणी और तमोगुणी कर्मोंमें लगे रहते हैं, वे असुर और मनुष्य आदि तो भला जानेंगे ही क्या ॥ १० ॥ प्रभो
! आप सर्वात्मक एवं ज्ञानस्वरूप हैं। इसीलिये वायुके समान आकाशमें अदृश्य रहकर भी
आप सम्पूर्ण चराचर जगत्में सदा-सर्वदा विद्यमान रहते हैं तथा इसकी चेष्टा, स्थिति, जन्म, नाश,
प्राणियोंके कर्म एवं संसारके बन्धन, मोक्ष—सभीको जानते
हैं ॥ ११ ॥ प्रभो ! आप जब गुणोंको स्वीकार करके लीला करनेके लिये बहुत-से अवतार
ग्रहण करते हैं,
तब मैं उनका दर्शन करता ही हूँ। अब मैं आपके उस अवतारका भी
दर्शन करना चाहता हूँ,
जो आपने स्त्रीरूपमें ग्रहण किया था ॥ १२ ॥ जिससे दैत्योंको
मोहित करके आपने देवताओंको अमृत पिलाया। स्वामिन् ! उसीको देखनेके लिये हम सब आये
हैं। हमारे मनमें उसके दर्शनका बड़े कौतूहल है ॥ १३ ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय 🙏🌺🌹🙏
जवाब देंहटाएंJay shree Lrishna
जवाब देंहटाएंॐ नमो भगवते वासुदेवाय
जवाब देंहटाएंJay shree Krishna
जवाब देंहटाएंOm namo narayanay 🙏🙏🙏
जवाब देंहटाएंजय श्री सीताराम जय हो प्रभु जय हो
जवाब देंहटाएं🌷🎋🌸 जय श्री हरि: 🙏🙏
जवाब देंहटाएंॐ नमो भगवते वासुदेवाय
नारायण नारायण नारायण हरि: हरि:
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय 🙏🌹🌺🙏
जवाब देंहटाएंॐ नमो भगवते वासुदेवाय।
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