॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – सोलहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)
कश्यपजी के द्वारा अदिति को पयोव्रत का उपदेश
श्रीशुक उवाच -
एवं पुत्रेषु नष्टेषु देवमातादितिस्तदा ।
हृते त्रिविष्टपे दैत्यैः पर्यतप्यद् अनाथवत् ॥ १ ॥
एकदा कश्यपस्तस्या आश्रमं भगवान् अगात् ।
निरुत्सवं निरानन्दं समाधेर्विरतश्चिरात् ॥ २ ॥
स पत्नीं दीनवदनां कृतासनपरिग्रहः ।
सभाजितो यथान्यायं इदमाह कुरूद्वह ॥ ३ ॥
अप्यभद्रं न विप्राणां भद्रे लोकेऽधुनाऽऽगतम् ।
न धर्मस्य न लोकस्य मृत्योश्छन्दानुवर्तिनः ॥ ४ ॥
अपि वाकुशलं किञ्चिद्गृहेषु गृहमेधिनि ।
धर्मस्यार्थस्य कामस्य यत्र योगो ह्ययोगिनाम् ॥ ५ ॥
अपि वा अतिथयोऽभ्येत्य कुटुंबासक्तया त्वया ।
गृहादपूजिता याताः प्रत्युत्थानेन वा क्वचित् ॥ ६ ॥
गृहेषु येष्वतिथयो नार्चिताः सलिलैरपि ।
यदि निर्यान्ति ते नूनं फेरुराजगृहोपमाः ॥ ७ ॥
अप्यग्नयस्तु वेलायां न हुता हविषा सति ।
त्वयोद्विग्नधिया भद्रे प्रोषिते मयि कर्हिचित् ॥ ८ ॥
यत्पूजया कामदुघान् याति लोकान् गृहान्वितः ।
ब्राह्मणोऽग्निश्च वै विष्णोः सर्वदेवात्मनो मुखम् ॥ ९ ॥
अपि सर्वे कुशलिनः तव पुत्रा मनस्विनि ।
लक्षयेऽस्वस्थमात्मानं भवत्या लक्षणैरहम् ॥ १० ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित् ! जब देवता इस प्रकार भागकर छिप गये और दैत्योंने स्वर्गपर अधिकार
कर लिया;
तब देवमाता अदिति को बड़ा दु:ख हुआ। वे अनाथ-सी हो गयीं ॥ १
॥ एक बार बहुत दिनों के बाद जब परमप्रभावशाली कश्यप मुनिकी समाधि टूटी, तब वे अदितिके आश्रमपर आये। उन्होंने देखा कि न तो वहाँ
सुख-शान्ति है और न किसी प्रकारका उत्साह या सजावट ही ॥ २ ॥ परीक्षित् ! जब वे
वहाँ जाकर आसनपर बैठ गये और अदितिने विधिपूर्वक उनका सत्कार कर लिया, तब वे अपनी पत्नी अदितिसे—जिसके चेहरेपर बड़ी उदासी छायी हुई थी—बोले ॥ ३ ॥ ‘कल्याणी ! इस समय संसारमें ब्राह्मणोंपर कोई विपत्ति तो
नहीं आयी है ?
धर्मका पालन तो ठीक-ठीक होता है ? कालके कराल गालमें पड़े हुए लोगोंका कुछ अमङ्गल तो नहीं हो
रहा है ?
॥ ४ ॥ प्रिये ! गृहस्थाश्रम तो, जो लोग योग नहीं कर सकते, उन्हें भी योगका फल देनेवाला है। इस गृहस्थाश्रममें रहकर धर्म, अर्थ और कामके सेवनमें किसी प्रकारका विघ्र तो नहीं हो रहा
है ?
॥ ५ ॥ यह भी सम्भव है कि तुम कुटुम्बके भरण-पोषणमें व्यग्र
रही हो,
अतिथि आये हों और तुमसे बिना सम्मान पाये ही लौट गये हों; तुम खड़ी होकर उनका सत्कार करनेमें भी असमर्थ रही हो। इसीसे
तो तुम उदास नहीं हो रही हो ? ॥ ६ ॥ जिन
घरोंमें आये हुए अतिथिका जलसे भी सत्कार नहीं किया जाता और वे ऐसे ही लौट जाते हैं, वे घर अवश्य ही गीदड़ोंके घरके समान हैं ॥ ७ ॥ प्रिये !
सम्भव है,
मेरे बाहर चले जानेपर कभी तुम्हारा चित्त उद्विग्र रहा हो
और समयपर तुमने हविष्यसे अग्रियोंमें हवन न किया हो ॥ ८ ॥ सर्वदेवमय भगवान्के मुख
हैं—ब्राह्मण और अग्रि। गृहस्थ पुरुष यदि इन दोनोंकी पूजा करता
है तो उसे उन लोकोंकी प्राप्ति होती है, जो समस्त कामनाओंको पूर्ण करनेवाले हैं ॥ ९ ॥ प्रिये ? तुम तो सर्वदा प्रसन्न रहती हो; परंतु तुम्हारे बहुत-से लक्षणों से मैं देख रहा हूँ कि इस
समय तुम्हारा चित्त अस्वस्थ है । तुम्हारे सब लडक़े तो कुशल-मङ्गल से हैं न ?’ ॥ १० ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
Jay shree Krishna
जवाब देंहटाएंॐ नमो भगवते वासुदेवाय
जवाब देंहटाएंजय श्री सीताराम
जवाब देंहटाएंॐ नमो भगवते वासुदेवाय 🙏🌹🌺🌹
जवाब देंहटाएं🥀🌸🌷जय श्री हरि: ! 🙏🙏
जवाब देंहटाएंॐ नमो भगवते वासुदेवाय
नारायण नारायण नारायण नारायण नारायण