शनिवार, 19 अक्टूबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

राजा बलि की स्वर्गपर विजय

श्रीगुरुरुवाच
जानामि मघवञ्छत्रोरुन्नतेरस्य कारणम्
शिष्यायोपभृतं तेजो भृगुभिर्ब्रह्मवादिभिः ॥ २८ ॥
भवद्विधो भवान्वापि वर्जयित्वेश्वरं हरिम् ॥
नास्य शक्तः पुरः स्थातुं कृतान्तस्य यथा जनाः ॥ २९ ॥
तस्मान्निलयमुत्सृज्य यूयं सर्वे त्रिविष्टपम्
यात कालं प्रतीक्षन्तो यतः शत्रोर्विपर्ययः ॥ ३० ॥
एष विप्रबलोदर्कः सम्प्रत्यूर्जितविक्रमः
तेषामेवापमानेन सानुबन्धो विनङ्क्ष्यति ॥ ३१ ॥
एवं सुमन्त्रितार्थास्ते गुरुणार्थानुदर्शिना
हित्वा त्रिविष्टपं जग्मुर्गीर्वाणाः कामरूपिणः ॥ ३२ ॥
देवेष्वथ निलीनेषु बलिर्वैरोचनः पुरीम्
देवधानीमधिष्ठाय वशं निन्ये जगत्त्रयम् ॥ ३३ ॥
तं विश्वजयिनं शिष्यं भृगवः शिष्यवत्सलाः
शतेन हयमेधानामनुव्रतमयाजयन् ॥ ३४ ॥
ततस्तदनुभावेन भुवनत्रयविश्रुताम्
कीर्तिं दिक्षु वितन्वानः स रेज उडुराडिव ॥ ३५ ॥
बुभुजे च श्रियं स्वृद्धां द्विजदेवोपलम्भिताम्
कृतकृत्यमिवात्मानं मन्यमानो महामनाः ॥ ३६ ॥

देवगुरु बृहस्पतिजीने कहा—‘इन्द्र! मैं तुम्हारे शत्रु बलिकी उन्नतिका कारण जानता हूँ। ब्रह्मवादी भृगुवंशियोंने अपने शिष्य बलिको महान् तेज देकर शक्तियोंका खजाना बना दिया है ॥ २८ ॥ सर्वशक्तिमान् भगवान्‌ को छोडक़र तुम या तुम्हारे-जैसा और कोई भी बलिके सामने उसी प्रकार नहीं ठहर सकता, जैसे कालके सामने प्राणी ॥ २९ ॥ इसलिये तुमलोग स्वर्गको छोडक़र कहीं छिप जाओ और उस समयकी प्रतीक्षा करो, जब तुम्हारे शत्रुका भाग्यचक्र पलटे ॥ ३० ॥ इस समय ब्राह्मणोंके तेजसे बलिकी उत्तरोत्तर वृद्धि हो रही है। उसकी शक्ति बहुत बढ़ गयी है। जब यह उन्हीं ब्राह्मणोंका तिरस्कार करेगा, तब अपने परिवार-परिकरके साथ नष्ट हो जायगा॥ ३१ ॥ बृहस्पतिजी देवताओंके समस्त स्वार्थ और परमार्थके ज्ञाता थे। उन्होंने जब इस प्रकार देवताओंको सलाह दी, तब वे स्वेच्छानुसार रूप धारण करके स्वर्ग छोडक़र चले गये ॥ ३२ ॥ देवताओंके छिप जानेपर विरोचननन्दन बलिने अमरावतीपुरीपर अपना अधिकार कर लिया और फिर तीनों लोकों- को जीत लिया ॥ ३३ ॥ जब बलि विश्वविजयी हो गये, तब शिष्यप्रेमी भृगुवंशियोंने अपने अनुगत शिष्यसे सौ अश्वमेध यज्ञ करवाये ॥ ३४ ॥ उन यज्ञोंके प्रभावसे बलिकी कीर्ति-कौमुदी तीनों लोकोंसे बाहर भी दसों दिशाओंमें फैल गयी और वे नक्षत्रोंके राजा चन्द्रमाके समान शोभायमान हुए ॥ ३५ ॥ ब्राह्मण-देवताओंकी कृपासे प्राप्त समृद्ध राज्यलक्ष्मी का वे बड़ी उदारतासे उपभोग करने लगे और अपनेको कृतकृत्य-सा मानने लगे ॥ ३६ ॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायामष्टमस्कन्धे
पञ्चदशोऽध्यायः

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से








4 टिप्‍पणियां:

  1. ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

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  2. जय श्री सीताराम जय हो प्रभु जय हो

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  3. 🌺🌾🌷 जय श्री हरि: 🙏🙏
    ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
    नारायण नारायण नारायण नारायण

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