बुधवार, 23 अक्तूबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – सोलहवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – सोलहवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)

कश्यपजी के द्वारा अदिति को पयोव्रत का उपदेश

पयोभक्षो व्रतमिदं चरेत् विष्णु अर्चनादृतः ।
पूर्ववत् जुहुयादग्निं ब्राह्मणांश्चापि भोजयेत् ॥ ४६ ॥
एवं तु अहः अहः कुर्याद् द्वादशाहं पयोव्रतम् ।
हरेः आराधनं होमं अर्हणं द्विजतर्पणम् ॥ ४७ ॥
प्रतिपत्-दिनं आरभ्य यावत् शुक्लत्रयोदशीम् ।
ब्रह्मचर्यमधःस्वप्नं स्नानं त्रिषवणं चरेत् ॥ ४८ ॥
वर्जयेत् असद् आलापं भोगान् उच्चावचान् तथा ।
अहिंस्रः सर्वभूतानां वासुदेवपरायणः ॥ ४९ ॥
त्रयोदश्यां अथो विष्णोः स्नपनं पञ्चकैर्विभोः ।
कारयेत् शास्त्रदृष्टेन विधिना विधिकोविदैः ॥ ५० ॥
पूजां च महतीं कुर्यात् वित्त शाठ्य विवर्जितः ।
चरुं निरूप्य पयसि शिपिविष्टाय विष्णवे ॥ ५१ ॥
श्रृतेन तेन पुरुषं यजेत सुसमाहितः ।
नैवेद्यं चातिगुणवद् दद्यात् पुरुषतुष्टिदम् ॥ ५२ ॥
आचार्यं ज्ञानसम्पन्नं वस्त्राभरणधेनुभिः ।
तोषयेत् ऋत्विजश्चैव तद् विद्धि आराधनं हरेः ॥ ५३ ॥
भोजयेत् तान्गुणवता सदन्नेन शुचिस्मिते ।
अन्यांश्च ब्राह्मणान् शक्त्या ये च तत्र समागताः ॥ ५४ ॥
दक्षिणां गुरवे दद्याद् ऋत्विग्भ्यश्च यथार्हतः ।
अन्नाद्येन अश्वपाकांश्च प्रीणयेत् समुपागतान् ॥ ५५ ॥
भुक्तवत्सु च सर्वेषु दीनान्ध कृपणादिषु ।
विष्णोस्तत् प्रीणनं विद्वान् भुञ्जीत सह बन्धुभिः ॥ ५६ ॥
नृत्यवादित्रगीतैश्च स्तुतिभिः स्वस्तिवाचकैः ।
कारयेत् तत्कथाभिश्च पूजां भगवतोऽन्वहम् ॥ ५७ ॥

भगवान्‌ की पूजा में आदर-बुद्धि रखते हुए केवल पयोव्रती रहकर यह व्रत करना चाहिये। पूर्ववत् प्रतिदिन हवन और ब्राह्मण-भोजन भी कराना चाहिये ॥ ४६ ॥ इस प्रकार पयोव्रती रहकर बारह दिनतक प्रतिदिन भगवान्‌की आराधना, होम और पूजा करे तथा ब्राह्मण-भोजन कराता रहे ॥ ४७ ॥
फाल्गुन शुक्ल प्रतिपदासे लेकर त्रयोदशीपर्यन्त ब्रह्मचर्यसे रहे, पृथ्वीपर शयन करे और तीनों समय स्नान करे ॥ ४८ ॥ झूठ न बोले। पापियोंसे बात न करे। पापकी बात न करे। छोटे-बड़े सब प्रकारके भोगोंका त्याग कर दे। किसी भी प्राणीको किसी प्रकारसे कष्ट न पहुँचावे। भगवान्‌की आराधनामें लगा ही रहे ॥ ४९ ॥ त्रयोदशीके दिन विधि जाननेवाले ब्राह्मणोंके द्वारा शास्त्रोक्त विधिसे भगवान्‌ विष्णुको पञ्चामृतस्नान करावे ॥ ५० ॥ उस दिन धनका संकोच छोडक़र भगवान्‌की बहुत बड़ी पूजा करनी चाहिये और दूधमें चरु (खीर) पकाकर विष्णुभगवान्‌को अर्पित करना चाहिये ॥ ५१ ॥ अत्यन्त एकाग्र चित्तसे उसी पकाये हुए चरुके द्वारा भगवान्‌का यजन करना चाहिये और उनको प्रसन्न करनेवाला गुणयुक्त तथा स्वादिष्ट नैवेद्य अर्पण करना चाहिये ॥ ५२ ॥ इसके बाद ज्ञानसम्पन्न आचार्य और ऋत्विजोंको वस्त्र, आभूषण और गौ आदि देकर सन्तुष्ट करना चाहिये। प्रिये! इसे भी भगवान्‌की ही आराधना समझो ॥ ५३ ॥ प्रिये! आचार्य और ऋत्विजोंको शुद्ध, सात्त्विक और गुणयुक्त भोजन कराना ही चाहिये; दूसरे ब्राह्मण और आये हुए अतिथियोंको भी अपनी शक्तिके अनुसार भोजन कराना चाहिए ॥ ५४ ॥ गुरु और ऋत्विजोंको यथायोग्य दक्षिणा देनी चाहिये। जो चाण्डाल आदि अपने-आप वहाँ आ गये हों, उन सभीको तथा दीन, अंधे और असमर्थ पुरुषोंको भी अन्न आदि देकर सन्तुष्ट करना चाहिये। जब सब लोग खा चुकें, तब उन सबके सत्कारको भगवान्‌की प्रसन्नताका साधन समझते हुए अपने भाई-बन्धुओंके साथ स्वयं भोजन करे ॥ ५५-५६ ॥ प्रतिपदासे लेकर त्रयोदशीतक प्रतिदिन नाच-गान, बाजे-गाजे, स्तुति, स्वस्तिवाचन और भगवत्कथाओं से भगवान्‌ की पूजा करे-करावे ॥ ५७ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




3 टिप्‍पणियां:

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट१०)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट१०) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन विश...