मंगलवार, 8 अक्तूबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – ग्यारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०८)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – ग्यारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०८)

देवासुर-संग्रामकी समाप्ति

श्रीनारद उवाच
भवद्भिरमृतं प्राप्तं नारायणभुजाश्रयैः
श्रिया समेधिताः सर्व उपारमत विग्रहात् ॥ ४४ ॥

श्रीशुक उवाच
संयम्य मन्युसंरम्भं मानयन्तो मुनेर्वचः
उपगीयमानानुचरैर्ययुः सर्वे त्रिविष्टपम् ॥ ४५ ॥
येऽवशिष्टा रणे तस्मिन्नारदानुमतेन ते
बलिं विपन्नमादाय अस्तं गिरिमुपागमन् ॥ ४६ ॥
तत्राविनष्टावयवान्विद्यमानशिरोधरान्
उशना जीवयामास संजीवन्या स्वविद्यया ॥ ४७ ॥
बलिश्चोशनसा स्पृष्टः प्रत्यापन्नेन्द्रियस्मृतिः
पराजितोऽपि नाखिद्यल्लोकतत्त्वविचक्षणः ॥ ४८ ॥

नारदजीने कहादेवताओ ! भगवान्‌की भुजाओंकी छत्रछायामें रहकर आपलोगोंने अमृत प्राप्त कर लिया है और लक्ष्मीजीने भी अपनी कृपा-कोरसे आपकी अभिवृद्धि की है, इसलिये आपलोग अब लड़ाई बंद कर दें ॥ ४४ ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैंदेवताओंने देवर्षि नारदकी बात मानकर अपने क्रोधके वेगको शान्त कर लिया और फिर वे सब-के-सब अपने लोक स्वर्गको चले गये। उस समय देवताओंके अनुचर उनके यशका गान कर रहे थे ॥ ४५ ॥ युद्धमें बचे हुए दैत्योंने देवर्षि नारदकी सम्मतिसे वज्रकी चोटसे मरे हुए बलिको लेकर अस्ताचलकी यात्रा की ॥ ४६ ॥ वहाँ शुक्राचार्यने अपनी सञ्जीवनी विद्यासे उन असुरोंको जीवित कर दिया, जिनके गरदन आदि अङ्ग कटे नहीं थे, बच रहे थे ॥ ४७ ॥ शुक्राचार्यके स्पर्श करते ही बलिकी इन्द्रियोंमें चेतना और मनमें स्मरण शक्ति आ गयी। बलि यह बात समझते थे कि संसारमें जीवन-मृत्यु, जय-पराजय आदि उलट-फेर होते ही रहते हैं। इसलिये पराजित होनेपर भी उन्हें किसी प्रकारका खेद नहीं हुआ ॥ ४८ ॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायामष्टमस्कन्धे
देवासुरसंग्रामे एकादशोऽध्यायः

॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




3 टिप्‍पणियां:

  1. 🌼🍂🌹 जय श्री हरि: !!🙏🙏
    ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
    नारायण नारायण नारायण नारायण

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  2. ॐ नमो भगवते वासुदेवाय 🙏🌹🌺🙏

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