॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – ग्यारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०८)
देवासुर-संग्रामकी समाप्ति
श्रीनारद उवाच
भवद्भिरमृतं प्राप्तं नारायणभुजाश्रयैः
श्रिया समेधिताः सर्व उपारमत विग्रहात् ॥ ४४ ॥
श्रीशुक उवाच
संयम्य मन्युसंरम्भं मानयन्तो मुनेर्वचः
उपगीयमानानुचरैर्ययुः सर्वे त्रिविष्टपम् ॥ ४५ ॥
येऽवशिष्टा रणे तस्मिन्नारदानुमतेन ते
बलिं विपन्नमादाय अस्तं गिरिमुपागमन् ॥ ४६ ॥
तत्राविनष्टावयवान्विद्यमानशिरोधरान्
उशना जीवयामास संजीवन्या स्वविद्यया ॥ ४७ ॥
बलिश्चोशनसा स्पृष्टः प्रत्यापन्नेन्द्रियस्मृतिः
पराजितोऽपि नाखिद्यल्लोकतत्त्वविचक्षणः ॥ ४८ ॥
नारदजीने कहा—देवताओ ! भगवान्की भुजाओंकी छत्रछायामें रहकर आपलोगोंने अमृत प्राप्त कर लिया
है और लक्ष्मीजीने भी अपनी कृपा-कोरसे आपकी अभिवृद्धि की है, इसलिये आपलोग अब लड़ाई बंद कर दें ॥ ४४ ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—देवताओंने देवर्षि नारदकी बात मानकर अपने क्रोधके वेगको शान्त कर लिया और फिर
वे सब-के-सब अपने लोक स्वर्गको चले गये। उस समय देवताओंके अनुचर उनके यशका गान कर
रहे थे ॥ ४५ ॥ युद्धमें बचे हुए दैत्योंने देवर्षि नारदकी सम्मतिसे वज्रकी चोटसे
मरे हुए बलिको लेकर अस्ताचलकी यात्रा की ॥ ४६ ॥ वहाँ शुक्राचार्यने अपनी सञ्जीवनी
विद्यासे उन असुरोंको जीवित कर दिया, जिनके गरदन आदि अङ्ग कटे नहीं थे, बच रहे थे ॥ ४७ ॥ शुक्राचार्यके स्पर्श करते ही बलिकी इन्द्रियोंमें चेतना और
मनमें स्मरण शक्ति आ गयी। बलि यह बात समझते थे कि संसारमें जीवन-मृत्यु, जय-पराजय आदि उलट-फेर होते ही रहते हैं। इसलिये पराजित
होनेपर भी उन्हें किसी प्रकारका खेद नहीं हुआ ॥ ४८ ॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां
संहितायामष्टमस्कन्धे
देवासुरसंग्रामे एकादशोऽध्यायः
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
Jay shree Krishna
जवाब देंहटाएं🌼🍂🌹 जय श्री हरि: !!🙏🙏
जवाब देंहटाएंॐ नमो भगवते वासुदेवाय
नारायण नारायण नारायण नारायण
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय 🙏🌹🌺🙏
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