॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – ग्यारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)
देवासुर-संग्रामकी समाप्ति
तस्मादिन्द्रो ऽबिभेच्छत्रोर्वज्रः प्रतिहतो यतः
किमिदं दैवयोगेन भूतं लोकविमोहनम् ॥ ३३ ॥
येन मे पूर्वमद्रीणां पक्षच्छेदः प्रजात्यये
कृतो निविशतां भारैः पतत्त्रैः पततां भुवि ॥ ३४ ॥
तपःसारमयं त्वाष्ट्रं वृत्रो येन विपाटितः
अन्ये चापि बलोपेताः सर्वास्त्रैरक्षतत्वचः ॥ ३५ ॥
सोऽयं प्रतिहतो वज्रो मया मुक्तोऽसुरेऽल्पके
नाहं तदाददे दण्डं ब्रह्मतेजोऽप्यकारणम् ॥ ३६ ॥
इति शक्रं विषीदन्तमाह वागशरीरिणी
नायं शुष्कैरथो नाद्रैर्वधमर्हति दानवः ॥ ३७ ॥
मयास्मै यद्वरो दत्तो मृत्युर्नैवार्द्र शुष्कयोः
अतोऽन्यश्चिन्तनीयस्ते उपायो मघवन्रिपोः ॥ ३८ ॥
तां दैवीं गिरमाकर्ण्य मघवान्सुसमाहितः
ध्यायन्फेनमथापश्यदुपायमुभयात्मकम् ॥ ३९ ॥
न शुष्केण न चाद्रेर्ण जहार नमुचेः शिरः
तं तुष्टुवुर्मुनिगणा माल्यैश्चावाकिरन्विभुम् ॥ ४० ॥
गन्धर्वमुख्यौ जगतुर्विश्वावसुपरावसू
देवदुन्दुभयो नेदुर्नर्तक्यो ननृतुर्मुदा ॥ ४१ ॥
अन्येऽप्येवं प्रतिद्वन्द्वान्वाय्वग्निवरुणादयः
सूदयामासुरसुरान्मृगान्केसरिणो यथा ॥ ४२ ॥
ब्रह्मणा प्रेषितो देवान्देवर्षिर्नारदो नृप
वारयामास विबुधान्दृष्ट्वा दानवसङ्क्षयम् ॥ ४३ ॥
जब वज्र नमुचिका कुछ न बिगाड़ सका, तब इन्द्र उससे डर गये। वे सोचने लगे कि ‘दैवयोगसे संसारभरको संशयमें डालनेवाली यह कैसी घटना हो गयी
! ॥ ३३ ॥ पहले युगमें जब ये पर्वत पाँखोंसे उड़ते थे और घूमते-फिरते भार के कारण
पृथ्वीपर गिर पड़ते थे,
तब प्रजाका विनाश होते देखकर इसी वज्रसे मैंने उन पहाड़ोंकी
पाँखें काट डाली थीं ॥ ३४ ॥ त्वष्टाकी तपस्याका सार ही वृत्रासुरके रूपमें प्रकट
हुआ था। उसे भी मैंने इसी वज्रके द्वारा काट डाला था। और भी अनेकों दैत्य, जो बहुत बलवान् थे और किसी अस्त्र-शस्त्रसे जिनके चमड़ेको
भी चोट नहीं पहुँचायी जा सकी थी, इसी वज्रसे
मैंने मृत्युके घाट उतार दिये थे ॥ ३५ ॥ वही मेरा वज्र मेरे प्रहार करनेपर भी इस
तुच्छ असुरको न मार सका,
अत: अब मैं इसे अङ्गीकार नहीं कर सकता। यह ब्रह्मतेजसे बना
है तो क्या हुआ,
अब तो निकम्मा हो चुका है’ ॥ ३६ ॥ इस प्रकार इन्द्र विषाद करने लगे। उसी समय यह आकाशवाणी हुई—‘‘यह दानव न तो सूखी वस्तुसे मर सकता है, न गीलीसे ॥ ३७ ॥ इसे मैं वर दे चुका हूँ कि ‘सूखी या गीली वस्तुसे तुम्हारी मृत्यु न होगी।’ इसलिये इन्द्र ! इस शत्रुको मारनेके लिये अब तुम कोई दूसरा
उपाय सोचो !’’
॥ ३८ ॥ उस आकाशवाणीको सुनकर देवराज इन्द्र बड़ी एकाग्रतासे
विचार करने लगे। सोचते-सोचते उन्हें सूझ गया कि समुद्रका फेन तो सूखा भी है, गीला भी; ॥ ३९ ॥ इसलिये
न उसे सूखा कह सकते हैं,
न गीला। अत: इन्द्रने उस न सूखे और न गीले समुद्र-फेनसे
नमुचिका सिर काट डाला। उस समय बड़े-बड़े ऋषि-मुनि भगवान् इन्द्रपर पुष्पोंकी
वर्षा और उनकी स्तुति करने लगे ॥ ४० ॥ गन्धर्वशिरोमणि विश्वावसु तथा परावसु गान
करने लगे,
देवताओंकी दुन्दुभियाँ बजने लगीं और नर्तकियाँ आनन्दसे
नाचने लगीं ॥ ४१ ॥ इसी प्रकार वायु, अग्नि,
वरुण आदि दूसरे देवताओंने भी अपने अस्त्र-शस्त्रोंसे
विपक्षियोंको वैसे ही मार गिराया जैसे सिंह हरिनोंको मार डालते हैं ॥ ४२ ॥
परीक्षित् ! इधर ब्रह्माजीने देखा कि दानवोंका तो सर्वथा नाश हुआ जा रहा है। तब
उन्होंने देवर्षि नारदको देवताओंके पास भेजा और नारदजीने वहाँ जाकर देवताओंको
लडऩेसे रोक दिया ॥ ४३ ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
Jay shree Krishna
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नारायण नारायण नारायण नारायण