मंगलवार, 8 अक्तूबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – ग्यारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – ग्यारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)

देवासुर-संग्रामकी समाप्ति

तस्मादिन्द्रो ऽबिभेच्छत्रोर्वज्रः प्रतिहतो यतः
किमिदं दैवयोगेन भूतं लोकविमोहनम् ॥ ३३ ॥
येन मे पूर्वमद्रीणां पक्षच्छेदः प्रजात्यये
कृतो निविशतां भारैः पतत्त्रैः पततां भुवि ॥ ३४ ॥
तपःसारमयं त्वाष्ट्रं वृत्रो येन विपाटितः
अन्ये चापि बलोपेताः सर्वास्त्रैरक्षतत्वचः ॥ ३५ ॥
सोऽयं प्रतिहतो वज्रो मया मुक्तोऽसुरेऽल्पके
नाहं तदाददे दण्डं ब्रह्मतेजोऽप्यकारणम् ॥ ३६ ॥
इति शक्रं विषीदन्तमाह वागशरीरिणी
नायं शुष्कैरथो नाद्रैर्वधमर्हति दानवः ॥ ३७ ॥
मयास्मै यद्वरो दत्तो मृत्युर्नैवार्द्र शुष्कयोः
अतोऽन्यश्चिन्तनीयस्ते उपायो मघवन्रिपोः ॥ ३८ ॥
तां दैवीं गिरमाकर्ण्य मघवान्सुसमाहितः
ध्यायन्फेनमथापश्यदुपायमुभयात्मकम् ॥ ३९ ॥
न शुष्केण न चाद्रेर्ण जहार नमुचेः शिरः
तं तुष्टुवुर्मुनिगणा माल्यैश्चावाकिरन्विभुम् ॥ ४० ॥
गन्धर्वमुख्यौ जगतुर्विश्वावसुपरावसू
देवदुन्दुभयो नेदुर्नर्तक्यो ननृतुर्मुदा ॥ ४१ ॥
अन्येऽप्येवं प्रतिद्वन्द्वान्वाय्वग्निवरुणादयः
सूदयामासुरसुरान्मृगान्केसरिणो यथा ॥ ४२ ॥
ब्रह्मणा प्रेषितो देवान्देवर्षिर्नारदो नृप
वारयामास विबुधान्दृष्ट्वा दानवसङ्क्षयम् ॥ ४३ ॥

जब वज्र नमुचिका कुछ न बिगाड़ सका, तब इन्द्र उससे डर गये। वे सोचने लगे कि दैवयोगसे संसारभरको संशयमें डालनेवाली यह कैसी घटना हो गयी ! ॥ ३३ ॥ पहले युगमें जब ये पर्वत पाँखोंसे उड़ते थे और घूमते-फिरते भार के कारण पृथ्वीपर गिर पड़ते थे, तब प्रजाका विनाश होते देखकर इसी वज्रसे मैंने उन पहाड़ोंकी पाँखें काट डाली थीं ॥ ३४ ॥ त्वष्टाकी तपस्याका सार ही वृत्रासुरके रूपमें प्रकट हुआ था। उसे भी मैंने इसी वज्रके द्वारा काट डाला था। और भी अनेकों दैत्य, जो बहुत बलवान् थे और किसी अस्त्र-शस्त्रसे जिनके चमड़ेको भी चोट नहीं पहुँचायी जा सकी थी, इसी वज्रसे मैंने मृत्युके घाट उतार दिये थे ॥ ३५ ॥ वही मेरा वज्र मेरे प्रहार करनेपर भी इस तुच्छ असुरको न मार सका, अत: अब मैं इसे अङ्गीकार नहीं कर सकता। यह ब्रह्मतेजसे बना है तो क्या हुआ, अब तो निकम्मा हो चुका है॥ ३६ ॥ इस प्रकार इन्द्र विषाद करने लगे। उसी समय यह आकाशवाणी हुई—‘‘यह दानव न तो सूखी वस्तुसे मर सकता है, न गीलीसे ॥ ३७ ॥ इसे मैं वर दे चुका हूँ कि सूखी या गीली वस्तुसे तुम्हारी मृत्यु न होगी।इसलिये इन्द्र ! इस शत्रुको मारनेके लिये अब तुम कोई दूसरा उपाय सोचो !’’ ॥ ३८ ॥ उस आकाशवाणीको सुनकर देवराज इन्द्र बड़ी एकाग्रतासे विचार करने लगे। सोचते-सोचते उन्हें सूझ गया कि समुद्रका फेन तो सूखा भी है, गीला भी; ॥ ३९ ॥ इसलिये न उसे सूखा कह सकते हैं, न गीला। अत: इन्द्रने उस न सूखे और न गीले समुद्र-फेनसे नमुचिका सिर काट डाला। उस समय बड़े-बड़े ऋषि-मुनि भगवान्‌ इन्द्रपर पुष्पोंकी वर्षा और उनकी स्तुति करने लगे ॥ ४० ॥ गन्धर्वशिरोमणि विश्वावसु तथा परावसु गान करने लगे, देवताओंकी दुन्दुभियाँ बजने लगीं और नर्तकियाँ आनन्दसे नाचने लगीं ॥ ४१ ॥ इसी प्रकार वायु, अग्नि, वरुण आदि दूसरे देवताओंने भी अपने अस्त्र-शस्त्रोंसे विपक्षियोंको वैसे ही मार गिराया जैसे सिंह हरिनोंको मार डालते हैं ॥ ४२ ॥ परीक्षित्‌ ! इधर ब्रह्माजीने देखा कि दानवोंका तो सर्वथा नाश हुआ जा रहा है। तब उन्होंने देवर्षि नारदको देवताओंके पास भेजा और नारदजीने वहाँ जाकर देवताओंको लडऩेसे रोक दिया ॥ ४३ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



2 टिप्‍पणियां:

  1. 🌸🌺🥀जय श्री हरि: 🙏🙏
    ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
    नारायण नारायण नारायण नारायण

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