शुक्रवार, 25 अक्तूबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – सत्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)



ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – सत्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

भगवान्‌ का प्रकट होकर अदिति को वर देना

श्रीशुक उवाच -
एतावदुक्त्वा भगवान् तत्रैवान्तरधीयत ।
अदितिर्दुर्लभं लब्ध्वा हरेर्जन्मात्मनि प्रभोः ॥ २१ ॥
उपाधावत् पतिं भक्त्या परया कृतकृत्यवत् ।
स वै समाधियोगेन कश्यपस्तदबुध्यत ॥ २२ ॥
प्रविष्टं आत्मनि हरेः अंशं हि अवितथेक्षणः ।
सोऽदित्यां वीर्यमाधत्त तपसा चिरसम्भृतम् ।
समाहितमना राजन् दारुण्यग्निं यथानिलः ॥ २३ ॥
अदितेर्धिष्ठितं गर्भं भगवन्तं सनातनम् ।
हिरण्यगर्भो विज्ञाय समीडे गुह्यनामभिः ॥ २४ ॥

श्रीब्रह्मोवाच -
जयोरुगाय भगवन् उरुक्रम नमोऽस्तु ते ।
नमो ब्रह्मण्यदेवाय त्रिगुणाय नमो नमः ॥ २५ ॥
नमस्ते पृश्निगर्भाय वेदगर्भाय वेधसे ।
त्रिनाभाय त्रिपृष्ठाय शिपिविष्टाय विष्णवे ॥ २६ ॥
त्वमादिरन्तो भुवनस्य मध्यं
     अनन्तशक्तिं पुरुषं यमाहुः ।
कालो भवानाक्षिपतीश विश्वं
     स्रोतो यथान्तः पतितं गभीरम् ॥ २७ ॥
त्वं वै प्रजानां स्थिरजंगमानां
     प्रजापतीनामसि सम्भविष्णुः ।
दिवौकसां देव दिवश्च्युतानां
     परायणं नौरिव मज्जतोऽप्सु ॥ २८ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंइतना कहकर भगवान्‌ वहीं अन्तर्धान हो गये। उस समय अदिति यह जानकर कि स्वयं भगवान्‌ मेरे गर्भसे जन्म लेंगे, अपनी कृतकृत्यताका अनुभव करने लगी। भला, यह कितनी दुर्लभ बात है ! वह बड़े प्रेमसे अपने पतिदेव कश्यपकी सेवा करने लगी। कश्यपजी सत्यदर्शी थे, उनके नेत्रोंसे कोई बात छिपी नहीं रहती थी। अपने समाधि-योगसे उन्होंने जान लिया कि भगवान्‌का अंश मेरे अंदर प्रविष्ट हो गया है। जैसे वायु काठमें अग्रिका आधान करती है, वैसे ही कश्यपजीने समाहित चित्तसे अपनी तपस्याके द्वारा चिर-सञ्चित वीर्यका अदितिमें आधान किया ॥ २१२३ ॥ जब ब्रह्माजीको यह बात मालूम हुई कि अदितिके गर्भमें तो स्वयं अविनाशी भगवान्‌ आये हैं, तब वे भगवान्‌के रहस्यमय नामोंसे उनकी स्तुति करने लगे ॥ २४ ॥
ब्रह्माजीने कहासमग्र कीर्ति के आश्रय भगवन् ! आपकी जय हो। अनन्त शक्तियोंके अधिष्ठान ! आपके चरणोंमें नमस्कार है। ब्रह्मण्यदेव ! त्रिगुणोंके नियामक ! आपके चरणोंमें मेरे बार-बार प्रणाम हैं ॥ २५ ॥ पृश्नि  के पुत्ररूप में उत्पन्न होनेवाले ! वेदोंके समस्त ज्ञानको अपने अंदर रखनेवाले प्रभो ! वास्तवमें आप ही सबके विधाता हैं। आपको मैं बार-बार नमस्कार करता हूँ। ये तीनों लोक आपकी नाभिमें स्थित हैं। तीनों लोकोंसे परे वैकुण्ठमें आप निवास करते हैं। जीवोंके अन्त:करणमें आप सर्वदा विराजमान रहते हैं। ऐसे सर्वव्यापक विष्णुको मैं नमस्कार करता हूँ ॥ २६ ॥ प्रभो ! आप ही संसारके आदि, अन्त और इसलिये मध्य भी हैं। यही कारण है कि वेद अनन्तशक्ति पुरुषके रूपमें आपका वर्णन करते हैं। जैसे गहरा स्रोत अपने भीतर पड़े हुए तिनकेको बहा ले जाता है, वैसे ही आप कालरूपसे संसारका धाराप्रवाह सञ्चालन करते रहते हैं ॥ २७ ॥ आप चराचर प्रजा और प्रजापतियोंको भी उत्पन्न करनेवाले मूल कारण हैं। देवाधिदेव! जैसे जलमें डूबते हुएके लिये नौका ही सहारा है, वैसे ही स्वर्गसे भगाये हुए देवताओंके लिये एकमात्र आप ही आश्रय हैं ॥ २८ ॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
अष्टमस्कन्धे वामनप्रादुर्भावे सप्तदशोऽध्यायः ॥ १७ ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



7 टिप्‍पणियां:

  1. ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

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  2. ॐ नमो भगवते वासुदेवाय 🙏🙏

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  3. जय श्री कृष्ण, कृष्ण कृष्ण कृष्ण

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  4. 🌷नमो नारायणाय🌷

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  5. 🌺🥀🌷 जय श्री हरि:🙏🙏
    ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
    नारायण नारायण नारायण नारायण

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