रविवार, 24 नवंबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण नवम स्कन्ध –दूसरा अध्याय..(पोस्ट०२)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
नवम स्कन्ध दूसरा अध्याय..(पोस्ट०२)

पृषध्र, आदि मनु के पाँच पुत्रों का वंश

तं शशाप कुलाचार्यः कृतागसं अकामतः ।
न क्षत्रबन्धुः शूद्रस्त्वं कर्मणा भवितामुना ॥ ९ ॥
एवं शप्तस्तु गुरुणा प्रत्यगृह्णात् कृताञ्जलिः ।
अधारयद् व्रतं वीर ऊर्ध्वरेता मुनिप्रियम् ॥ १० ॥
वासुदेवे भगवति सर्वात्मनि परेऽमले ।
एकान्तित्वं गतो भक्त्या सर्वभूतसुहृत् समः ॥ ११ ॥
विमुक्तसंगः शान्तात्मा संयताक्षोऽपरिग्रहः ।
यदृच्छयोपपन्नेन कल्पयन् वृत्तिमात्मनः ॥ १२ ॥
आत्मनि आत्मानमाधाय ज्ञानतृप्तः समाहितः ।
विचचार महीमेतां जडान्ध-बधिराकृतिः ॥ १३
एवं वृत्तो वनं गत्वा दृष्ट्वा दावाग्निमुत्थितम् ।
तेनोपयुक्तकरणो ब्रह्म प्राप परं मुनिः ॥ १४ ॥

यद्यपि पृषध्र ने जान-बूझकर अपराध नहीं किया था, फिर भी कुलपुरोहित वसिष्ठजी ने उसे शाप दिया कि तुम इस कर्मसे क्षत्रिय नहीं रहोगे; जाओ, शूद्र हो जाओ ॥ ९ ॥ पृषध्र ने अपने गुरुदेव का यह शाप अञ्जलि बाँधकर स्वीकार किया और इसके बाद सदाके लिये मुनियोंको प्रिय लगनेवाले नैष्ठिक ब्रह्मचर्य-व्रतको धारण किया ॥ १० ॥ वह समस्त प्राणियोंका अहैतुक हितैषी एवं सब के प्रति समान भाव से युक्त होकर भक्ति के द्वारा परम विशुद्ध सर्वात्मा भगवान्‌ वासुदेव का अनन्य प्रेमी हो गया ॥ ११ ॥ उसकी सारी आसक्तियाँ मिट गयीं। वृत्तियाँ शान्त हो गयीं। इन्द्रियाँ वशमें हो गयीं। वह कभी किसी प्रकारका संग्रह-परिग्रह नहीं रखता था। जो कुछ दैववश प्राप्त हो जाता, उसीसे अपना जीवन-निर्वाह कर लेता ॥ १२ ॥ वह आत्मज्ञानसे सन्तुष्ट एवं अपने चित्तको परमात्मामें स्थित करके प्राय: समाधिस्थ रहता। कभी-कभी जड, अंधे और बहरेके समान पृथ्वीपर विचरण करता ॥ १३ ॥ इस प्रकारका जीवन व्यतीत करता हुआ वह एक दिन वनमें गया। वहाँ उसने देखा कि दावानल धधक रहा है। मननशील पृषध्र अपनी इन्द्रियोंको उसी अग्नि में भस्म करके परब्रह्म परमात्माको प्राप्त हो गया ॥ १४ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से





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