॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)
भगवान् वामनजी का विराट् रूप होकर
दो ही पग से पृथ्वी और स्वर्ग को नाप लेना
श्रीशुक उवाच -
एवं अश्रद्धितं शिष्यं अनादेशकरं गुरुः ।
शशाप दैवप्रहितः सत्यसन्धं मनस्विनम् ॥ १४ ॥
दृढं पण्डितमान्यज्ञः स्तब्धोऽस्यस्मद् उपेक्षया ।
मच्छासनातिगो यस्त्वं अचिराद्भ्रश्यसे श्रियः ॥ १५ ॥
एवं शप्तः स्वगुरुणा सत्यान्न चलितो महान् ।
वामनाय ददौ एनां अर्चित्वोदकपूर्वकम् ॥ १६ ॥
विन्ध्यावलिस्तदागत्य पत्नी जालकमालिनी ।
आनिन्ये कलशं हैमं अवनेजन्यपां भृतम् ॥ १७ ॥
यजमानः स्वयं तस्य श्रीमत्पादयुगं मुदा ।
अवनिज्यावहन्मूर्ध्नि तदपो विश्वपावनीः ॥ १८ ॥
तदासुरेन्द्रं दिवि देवतागणा
गन्धर्वविद्याधरसिद्धचारणाः ।
तत्कर्म सर्वेऽपि गृणन्त आर्जवं
प्रसूनवर्षैर्ववृषुर्मुदान्विताः ॥ १९ ॥
नेदुर्मुहुर्दुन्दुभयः सहस्रशो
गन्धर्वकिम्पूरुषकिन्नरा जगुः ।
मनस्विनानेन कृतं सुदुष्करं
विद्वानदाद्यद्रिपवे जगत्त्रयम् ॥ २० ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—जब शुक्राचार्यजीने देखा कि मेरा यह शिष्य गुरुके प्रति अश्रद्धालु है तथा
मेरी आज्ञाका उल्लङ्घन कर रहा है, तब दैवकी
प्रेरणासे उन्होंने राजा बलिको शाप दे दिया— यद्यपि वे सत्यप्रतिज्ञ और उदार होनेके कारण शापके पात्र नहीं थे ॥ १४ ॥
शुक्राचार्यजीने कहा—‘मूर्ख ! तू है तो अज्ञानी, परंतु अपनेको बहुत बड़ा पण्डित मानता है। तू मेरी उपेक्षा करके गर्व कर रहा है।
तूने मेरी आज्ञाका उल्लङ्घन किया है। इसलिये शीघ्र ही तू अपनी लक्ष्मी खो बैठेगा’ ॥ १५ ॥ राजा बलि बड़े महात्मा थे। अपने गुरुदेवके शाप
देनेपर भी वे सत्यसे नहीं डिगे। उन्होंने वामनभगवान्की विधिपूर्वक पूजा की और
हाथमें जल लेकर तीन पग भूमिका संकल्प कर दिया ॥ १६ ॥ उसी समय राजा बलिकी पत्नी
विन्ध्यावली,
जो मोतियोंके गहनोंसे सुसज्जित थी, वहाँ आयी। उसने अपने हाथों वामनभगवान्के चरण पखारनेके लिये
जलसे भरा सोनेका कलश लाकर दिया ॥ १७ ॥ बलिने स्वयं बड़े आनन्दसे उनके
सुन्दर-सुन्दर युगल चरणोंको धोया और उनके चरणोंका वह विश्वपावन जल अपने सिरपर
चढ़ाया ॥ १८ ॥ उस समय आकाशमें स्थित देवता, गन्धर्व,
विद्याधर, सिद्ध, चारण— सभी लोग राजा
बलिके इस अलौकिक कार्य तथा सरलताकी प्रशंसा करते हुए बड़े आनन्दसे उनके ऊपर दिव्य
पुष्पोंकी वर्षा करने लगे ॥ १९ ॥ एक साथ ही हजारों दुन्दुभियाँ बार-बार बजने लगीं।
गन्धर्व,
किम्पुरुष और किन्नर गान करने लगे—‘अहो धन्य है ! इन उदारशिरोमणि बलिने ऐसा काम कर दिखाया, जो दूसरोंके लिये अत्यन्त कठिन है। देखो तो सही, इन्होंने जान-बूझकर अपने शत्रुको तीनों लोकोंका दान कर दिया
!’
॥ २० ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
Jay shree Krishna
जवाब देंहटाएंजय श्री सीताराम
जवाब देंहटाएं🌺💖🌼जय श्री हरि: 🙏🙏
जवाब देंहटाएंॐ श्री परमात्मने नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
नारायण नारायण नारायण नारायण