॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
नवम स्कन्ध –चौथा अध्याय..(पोस्ट१०)
नाभाग और अम्बरीष की कथा
श्रीभगवानुवाच ।
अहं भक्तपराधीनो हि
अस्वतंत्र इव द्विज ।
साधुभिर्ग्रस्तहृदयो भक्तैर्भक्तजनप्रियः ॥ ६३ ॥
नाहं आत्मानमाशासे
मद्भक्तैः साधुभिर्विना ।
श्रियं
चात्यन्तिकीं ब्रह्मन् येषां गतिः अहं परा ॥ ६४ ॥
ये
दारागारपुत्राप्तान् प्राणान् वित्तमिमं परम् ।
हित्वा मां शरणं
याताः कथं तान् त्यक्तुमुत्सहे ॥ ६५ ॥
मयि निर्बद्धहृदयाः
साधवः समदर्शनाः ।
वशीकुर्वन्ति मां
भक्त्या सत्स्त्रियः सत्पतिं यथा ॥ ६६ ॥
मत्सेवया प्रतीतं च
सालोक्यादि चतुष्टयम् ।
नेच्छन्ति सेवया
पूर्णाः कुतोऽन्यत् कालविद्रुतम् ॥ ६७ ॥
साधवो हृदयं मह्यं
साधूनां हृदयं त्वहम् ।
मदन्यत् ते न
जानन्ति नाहं तेभ्यो मनागपि ॥ ६८ ॥
उपायं कथयिष्यामि
तव विप्र श्रृणुष्व तत् ।
अयं
ह्यात्माभिचारस्ते यतस्तं याहि मा चिरम् ।
साधुषु प्रहितं
तेजः प्रहर्तुः कुरुतेऽशिवम् ॥ ६९ ॥
तपो विद्या च
विप्राणां निःश्रेयसकरे उभे ।
ते एव दुर्विनीतस्य
कल्पेते कर्तुरन्यथा ॥ ७० ॥
ब्रह्मन् तद् गच्छ
भद्रं ते नाभागतनयं नृपम् ।
क्षमापय महाभागं
ततः शान्तिर्भविष्यति ॥ ७१ ॥
श्रीभगवान् ने कहा—दुर्वासाजी
! मैं सर्वथा भक्तोंके अधीन हूँ। मुझमें तनिक भी स्वतन्त्रता नहीं है। मेरे
सीधे-सादे सरल भक्तोंने मेरे हृदय को अपने हाथ में कर रखा है। भक्तजन मुझ से प्यार
करते हैं और मैं उनसे ॥ ६३ ॥ ब्रह्मन् ! अपने भक्तों का एकमात्र आश्रय मैं ही हूँ।
इसलिये अपने साधुस्वभाव भक्तों को छोडक़र मैं न तो अपने-आपको चाहता हूँ और न अपनी अर्धाङ्गिनी
विनाश- रहित लक्ष्मी को ॥ ६४ ॥ जो भक्त
स्त्री, पुत्र, गृह, गुरुजन, प्राण, धन, इहलोक और परलोक—सब को छोडक़र केवल मेरी शरण में आ गये
हैं, उन्हें छोडऩे का संकल्प भी मैं कैसे कर सकता हूँ ?
॥ ६५ ॥ जैसे सती स्त्री अपने पातिव्रत्यसे सदाचारी पतिको वशमें कर
लेती है, वैसे ही मेरे साथ अपने हृदयको प्रेम-बन्धनसे बाँध
रखनेवाले समदर्शी साधु भक्तिके द्वारा मुझे अपने वशमें कर लेते हैं ॥ ६६ ॥ मेरे
अनन्यप्रेमी भक्त सेवासे ही अपनेको परिपूर्ण—कृतकृत्य मानते
हैं। मेरी सेवाके फलस्वरूप जब उन्हें सालोक्य-सारूप्य आदि मुक्तियाँ प्राप्त होती
हैं, तब वे उन्हें भी स्वीकार करना नहीं चाहते; फिर समयके फेरसे नष्ट हो जानेवाली वस्तुओंकी तो बात ही क्या है ॥ ६७ ॥
दुर्वासाजी ! मैं आपसे और क्या कहूँ, मेरे प्रेमी भक्त तो
मेरे हृदय हैं और उन प्रेमी भक्तोंका हृदय स्वयं मैं हूँ। वे मेरे अतिरिक्त और कुछ
नहीं जानते तथा मैं उनके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं जानता ॥ ६८ ॥ दुर्वासाजी !
सुनिये, मैं आपको एक उपाय बताता हूँ। जिसका अनिष्ट करनेसे
आपको इस विपत्तिमें पडऩा पड़ा है, आप उसीके पास जाइये। निरपराध
साधुओंके अनिष्टकी चेष्टासे अनिष्ट करनेवालेका ही अमङ्गल होता है ॥ ६९ ॥ इसमें
सन्देह नहीं कि ब्राह्मणोंके लिये तपस्या और विद्या परम कल्याणके साधन हैं। परंतु
यदि ब्राह्मण उद्दण्ड और अन्यायी हो जाय, तो वे ही दोनों
उलटा फल देने लगते हैं ॥ ७० ॥ दुर्वासाजी ! आपका कल्याण हो। आप नाभागनन्दन परम
भाग्यशाली राजा अम्बरीषके पास जाइये और उनसे क्षमा माँगिये। तब आपको शान्ति मिलेगी
॥ ७१ ॥
इति श्रीमद्भागवते
महापुराणे पारमहंस्यां
संहितायां
नवमस्कन्धे चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४ ॥
हरिः ॐ तत्सत्
श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
Jay shree Krishna
जवाब देंहटाएंजय श्री सीताराम
जवाब देंहटाएं💖💖💖 जय श्री हरि: 🙏🙏🙏
जवाब देंहटाएंॐ नमो नारायण
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
नारायण नारायण नारायण नारायण