सोमवार, 30 दिसंबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण नवम स्कन्ध –पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥



श्रीमद्भागवतमहापुराण

नवम स्कन्ध पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)



ऋचीक, जमदग्नि और परशुरामजी का चरित्र



श्रीराजोवाच ।

किं तदंहो भगवतो राजन्यैरजितात्मभिः ।

कृतं येन कुलं नष्टं क्षत्रियाणां अभीक्ष्णशः ॥ १६ ॥



श्रीशुक उवाच ।

हैहयानां अधिपतिः अर्जुनः क्षत्रियर्षभः ।

दत्तं नारायण अंशांशं आराध्य परिकर्मभिः ॥ १७ ॥

बाहून् दशशतं लेभे दुर्धर्षत्वमरातिषु ।

अव्याहतेन्द्रियौजः श्री तेजोवीर्ययशोबलम् ॥ १८ ॥

योगेश्वरत्वं ऐश्वर्यं गुणा यत्राणिमादयः ।

चचार अव्याहतगतिः लोकेषु पवनो यथा ॥ १९ ॥

स्त्रीरत्‍नैः आवृतः क्रीडन् रेवाम्भसि मदोत्कटः ।

वैजयन्तीं स्रजं बिभ्रद् रुरोध सरितं भुजैः ॥ २० ॥

विप्लावितं स्वशिबिरं प्रतिस्रोतःसरिज्जलैः ।

नामृष्यत् तस्य तद् वीर्यं वीरमानी दशाननः ॥ २१ ॥

गृहीतो लीलया स्त्रीणां समक्षं कृतकिल्बिषः ।

माहिष्मत्यां सन्निरुद्धो मुक्तो येन कपिर्यथा ॥ २२ ॥


राजा परीक्षित्‌ ने पूछाभगवन् ! अवश्य ही उस समय के क्षत्रिय विषयलोलुप हो गये थे; परंतु उन्होंने परशुरामजीका ऐसा कौन-सा अपराध कर दिया, जिसके कारण उन्होंने बार-बार क्षत्रियोंके वंशका संहार किया ? ॥ १६ ॥
श्रीशुकदेवजी कहने लगेपरीक्षित्‌ ! उन दिनों हैहयवंशका अधिपति था अर्जुन। वह एक श्रेष्ठ क्षत्रिय था। उसने अनेकों प्रकारकी सेवा-शुश्रूषा करके भगवान्‌ नारायणके अंशावतार दत्तात्रेयजीको प्रसन्न कर लिया और उनसे एक हजार भुजाएँ तथा कोई भी शत्रु युद्धमें पराजित न कर सकेयह वरदान प्राप्त कर लिया। साथ ही इन्द्रियोंका अबाध बल, अतुल सम्पत्ति, तेजस्विता, वीरता, कीर्ति और शारीरिक बल भी उसने उनकी कृपासे प्राप्त कर लिये थे ॥ १७-१८ ॥ वह योगेश्वर हो गया था। उसमें ऐसा ऐश्वर्य था कि वह सूक्ष्म-से-सूक्ष्म, स्थूल-से- स्थूल रूप धारण कर लेता। सभी सिद्धियाँ उसे प्राप्त थीं। वह संसारमें वायुकी तरह सब जगह बेरोक-टोक विचरा करता ॥ १९ ॥ एक बार गलेमें वैजयन्ती माला पहने सहस्रबाहु अर्जुन बहुत-सी सुन्दरी स्त्रियोंके साथ नर्मदा नदीमें जल-विहार कर रहा था। उस समय मदोन्मत्त सहस्रबाहुने अपनी बाँहोंसे नदीका प्रवाह रोक दिया ॥ २० ॥ दशमुख रावणका शिविर भी वहीं कहीं पासमें ही था। नदीकी धारा उलटी बहने लगी, जिससे उसका शिविर डूबने लगा। रावण अपनेको बहुत बड़ा वीर तो मानता ही था, इसलिये सहस्रार्जुनका यह पराक्रम उससे सहन नहीं हुआ ॥ २१ ॥ जब रावण सहस्रबाहु अर्जुनके पास जाकर बुरा-भला कहने लगा, तब उसने स्त्रियोंके सामने ही खेल-खेल में रावण को पकड़ लिया और अपनी राजधानी माहिष्मती में ले जाकर बंदर के समान कैद कर लिया। पीछे पुलस्त्यजी के कहने से सहस्रबाहु ने रावण को छोड़ दिया ॥ २२ ॥



शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


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