॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
नवम स्कन्ध –चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)
चन्द्रवंश का वर्णन
तच्चित्तो
विह्वलः शोचन् बभ्रामोन्मत्तवन् महीम् ॥ ३२ ॥
स
तां वीक्ष्य कुरुक्षेत्रे सरस्वत्यां च तत्सखीः ।
पञ्च
प्रहृष्टवदनाः प्राह सूक्तं पुरूरवाः ॥ ३३ ॥
अहो
जाये तिष्ठ तिष्ठ घोरे न त्यक्तुमर्हसि ।
मां
त्वमद्याप्यनिर्वृत्य वचांसि कृणवावहै ॥ ३४ ॥
सुदेहोऽयं
पतत्यत्र देवि दूरं हृतस्त्वया ।
खादन्त्येनं
वृका गृध्राः त्वत्प्रसादस्य नास्पदम् ॥ ३५ ॥
उर्वश्युवाच
।
मा
मृथाः पुरुषोऽसि त्वं मा स्म त्वाद्युर्वृका इमे ।
क्वापि
सख्यं न वै स्त्रीणां वृकाणां हृदयं यथा ॥ ३६ ॥
स्त्रियो
ह्यकरुणाः क्रूरा दुर्मर्षाः प्रियसाहसाः ।
घ्नन्त्यल्पार्थेऽपि
विश्रब्धं पतिं भ्रातरमप्युत ॥ ३७ ॥
विधायालीकविश्रम्भं
अज्ञेषु त्यक्तसौहृदाः ।
नवं
नवमभीप्सन्त्यः पुंश्चल्यः स्वैरवृत्तयः ॥ ३८ ॥
संवत्सरान्ते
हि भवान् एकरात्रं मयेश्वरः ।
वस्यत्यपत्यानि
च ते भविष्यन्त्यपराणि भोः ॥ ३९ ॥
परीक्षित् ! राजा पुरूरवा ने जब अपने शयनागार में अपनी प्रियतमा उर्वशी को नहीं देखा तो वे अनमने हो गये। उनका चित्त उर्वशीमें ही बसा हुआ था। वे उसके लिये शोकसे विह्वल हो गये और उन्मत्तकी भाँति पृथ्वी में इधर-उधर भटकने लगे ॥ ३२ ॥ एक दिन कुरुक्षेत्र में सरस्वती नदीके तटपर उन्होंने उर्वशी और उसकी पाँच प्रसन्नमुखी सखियोंको देखा और बड़ी मीठी वाणीसे कहा— ॥ ३३ ॥ ‘प्रिये ! तनिक ठहर जाओ। एक बार मेरी बात मान लो। निष्ठुरे ! अब आज तो मुझे सुखी किये बिना मत जाओ। क्षणभर ठहरो; आओ हम दोनों कुछ बातें तो कर लें ॥ ३४ ॥ देवि ! अब इस शरीरपर तुम्हारा कृपा-प्रसाद नहीं रहा, इसीसे तुमने इसे दूर फेंक दिया है। अत: मेरा यह सुन्दर शरीर अभी ढेर हुआ जाता है और तुम्हारे देखते-देखते इसे भेडिय़े और गीध खा जायँगे’ ॥ ३५ ॥
उर्वशीने कहा—राजन् ! तुम पुरुष हो। इस प्रकार मत मरो। देखो, सचमुच ये भेडिय़े तुम्हें खा न जायँ ! स्त्रियोंकी किसीके साथ मित्रता नहीं हुआ करती। स्त्रियोंका हृदय और भेडिय़ोंका हृदय बिलकुल एक-जैसा होता है ॥ ३६ ॥ स्त्रियाँ निर्दय होती हैं। क्रूरता तो उनमें स्वाभाविक ही रहती है। तनिक-सी बातमें चिढ़ जाती हैं और अपने सुखके लिये बड़े-बड़े साहसके काम कर बैठती हैं, थोड़े-से स्वार्थके लिये विश्वास दिलाकर अपने पति और भाईतकको मार डालती हैं ॥ ३७ ॥ इनके हृदयमें सौहार्द तो है ही नहीं। भोले-भाले लोगोंको झूठ-मूठका विश्वास दिलाकर फाँस लेती हैं और नये-नये पुरुषकी चाहसे कुलटा और स्वच्छन्दचारिणी बन जाती हैं ॥ ३८ ॥ तो फिर तुम धीरज धरो। तुम राजराजेश्वर हो। घबराओ मत। प्रति एक वर्षके बाद एक रात तुम मेरे साथ रहोगे। तब तुम्हारे और भी सन्तानें होंगी ॥ ३९ ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
Jay shree Krishna
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जवाब देंहटाएंॐ नमो भगवते वासुदेवाय
नारायण नारायण नारायण नारायण