॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
नवम स्कन्ध –चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)
चन्द्रवंश का वर्णन
अन्तर्वत्नीमुपालक्ष्य
देवीं स प्रययौ पुरीम् ।
पुनस्तत्र
गतोऽब्दान्ते उर्वशीं वीरमातरम् ॥ ४० ॥
उपलभ्य
मुदा युक्तः समुवास तया निशाम् ।
अथैनमुर्वशी
प्राह कृपणं विरहातुरम् ॥ ४१ ॥
गन्धर्वान्
उपधावेमान् तुभ्यं दास्यन्ति मामिति ।
तस्य
संस्तुवतस्तुष्टा अग्निस्थालीं ददुर्नृप ।
उर्वशीं
मन्यमानस्तां सोऽबुध्यत चरन् वने ॥ ४२ ॥
स्थालीं
न्यस्य वने गत्वा गृहानाध्यायतो निशि ।
त्रेतायां
सम्प्रवृत्तायां मनसि त्रय्यवर्तत ॥ ४३ ॥
स्थालीस्थानं
गतोऽश्वत्थं शमीगर्भं विलक्ष्य सः ।
तेन
द्वे अरणी कृत्वा उर्वशीलोककाम्यया ॥ ४४ ॥
उर्वशीं
मन्त्रतो ध्यायन् अधरारणिमुत्तराम् ।
आत्मानं
उभयोर्मध्ये यत्तत् प्रजननं प्रभुः ॥ ४५ ॥
तस्य
निर्मन्थनात् जातो जातवेदा विभावसुः ।
त्रय्या
स विद्यया राज्ञा पुत्रत्वे कल्पितस्त्रिवृत् ॥ ४६ ॥
तेनायजत
यज्ञेशं भगवन्तं अधोक्षजम् ।
उर्वशीलोकमन्विच्छन्
सर्वदेवमयं हरिम् ॥ ४७ ॥
एक
एव पुरा वेदः प्रणवः सर्ववाङ्मयः ।
देवो
नारायणो नान्य एकोऽग्निर्वर्ण एव च ॥ ४८ ॥
पुरूरवस
एवासीत् त्वयी त्रेतामुखे नृप ।
अग्निना
प्रजया राजा लोकं गान्धर्वमेयिवान् ॥ ४९ ॥
राजा पुरूरवाने देखा कि उर्वशी गर्भवती है, इसलिये वे अपनी राजधानीमें लौट आये। एक वर्षके बाद फिर वहाँ गये। तबतक उर्वशी एक वीर पुत्रकी माता हो चुकी थी ॥ ४० ॥ उर्वशीके मिलनेसे पुरूरवाको बड़ा सुख मिला और वे एक रात उसीके साथ रहे। प्रात:काल जब वे विदा होने लगे, तब विरहके दु:खसे वे अत्यन्त दीन हो गये। उर्वशीने उनसे कहा— ॥ ४१ ॥ ‘तुम इन गन्धर्वोंकी स्तुति करो, ये चाहें तो तुम्हें मुझे दे सकते हैं। तब राजा पुरूरवाने गन्धर्वोंकी स्तुति की। परीक्षित् ! राजा पुरूरवाकी स्तुतिसे प्रसन्न होकर गन्धर्वोंने उन्हें एक अग्निस्थाली (अग्निस्थापन करनेका पात्र) दी। राजाने समझा यही उर्वशी है, इसलिये उसको हृदयसे लगाकर वे एक वनसे दूसरे वनमें घूमते रहे ॥ ४२ ॥ जब उन्हें होश हुआ, तब वे स्थालीको वनमें छोडक़र अपने महलमें लौट आये एवं रात के समय उर्वशी का ध्यान करने रहे। इस प्रकार जब त्रेतायुगका प्रारम्भ हुआ, तब उनके हृदयमें तीनों वेद प्रकट हुए ॥ ४३ ॥ फिर वे उस स्थानपर गये, जहाँ उन्होंने वह अग्निस्थाली छोड़ी थी। अब उस स्थानपर शमीवृक्षके गर्भमें एक पीपलका वृक्ष उग आया था, उसे देखकर उन्होंने उससे दो अरणियाँ (मन्थनकाष्ठ) बनायीं। फिर उन्होंने उर्वशीलोककी कामनासे नीचेकी अरणिको उर्वशी, ऊपरकी अरणिको पुरूरवा और बीचके काष्ठको पुत्ररूपसे चिन्तन करते हुए अग्नि प्रज्वलित करनेवाले मन्त्रोंसे मन्थन किया ॥ ४४-४५ ॥ उनके मन्थनसे ‘जातवेदा’ नामका अग्नि प्रकट हुआ। राजा पुरूरवाने अग्निदेवता को त्रयीविद्याके द्वारा आहवनीय, गाहर्पत्य और दक्षिणाग्नि—इन तीन भागोंमें विभक्त करके पुत्ररूपसे स्वीकार कर लिया ॥ ४६ ॥ फिर उर्वशीलोककी इच्छासे पुरूरवाने उन तीनों अग्नियोंद्वारा सर्वदेवस्वरूप इन्द्रियातीत यज्ञपति भगवान् श्रीहरिका यजन किया ॥ ४७ ॥
परीक्षित् ! त्रेताके पूर्व सत्ययुगमें एकमात्र प्रणव (ॐ कार) ही वेद था। सारे वेद-शास्त्र उसीके अन्तर्भूत थे। देवता थे एकमात्र नारायण; और कोई न था। अग्नि भी तीन नहीं, केवल एक था और वर्ण भी केवल एक ‘हंस’ ही था ॥ ४८ ॥ परीक्षित् ! त्रेताके प्रारम्भमें पुरूरवासे ही वेदत्रयी और अग्नित्रयी का आविर्भाव हुआ। राजा पुरूरवाने अग्नि को सन्तानरूपसे स्वीकार करके गन्धर्वलोक की प्राप्ति की ॥ ४९ ॥
इति
श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां
संहितायां
नवमस्कन्धे चतुर्दशोऽध्यायः ॥ १४ ॥
हरिः
ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
Jay shree Krishna
जवाब देंहटाएं🌹🍂💐जय श्री हरि:🙏🙏🙏
जवाब देंहटाएंॐ श्री परमात्मने नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय