गुरुवार, 5 दिसंबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण नवम स्कन्ध –पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
नवम स्कन्ध पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

दुर्वासाजीकी दु:खनिवृत्ति

संवत्सरोऽत्यगात् तावद् यावता नागतो गतः ।
मुनिस्तद्दर्शनाकांक्षो राजाऽब्भक्षो बभूव ह ॥ २३ ॥
गतेऽथ दुर्वाससि सोऽम्बरीषो
द्विजोपयोगातिपवित्रमाहरत् ।
ऋषेर्विमोक्षं व्यसनं च बुद्ध्वा
मेने स्ववीर्यं च परानुभावम् ॥ २४ ॥
एवं विधानेकगुणः स राजा
परात्मनि ब्रह्मणि वासुदेवे ।
क्रियाकलापैः समुवाह भक्तिं
ययाऽऽविरिञ्च्यान् निरयांश्चकार ॥ २५ ॥

श्रीशुक उवाच ।
अथाम्बरीषस्तनयेषु राज्यं
समानशीलेषु विसृज्य धीरः ।
वनं विवेशात्मनि वासुदेवे
मनो दधद् ध्वस्तगुणप्रवाहः ॥ २६ ॥
इत्येतत् पुण्यमाख्यानं अंबरीषस्य भूपतेः ।
संकीर्तयन् अनुध्यायन् भक्तो भगवतो भवेत् ॥ २७ ॥

परीक्षित्‌ ! जब सुदर्शन चक्रसे भयभीत होकर दुर्वासाजी भगे थे, तबसे लेकर उनके लौटने तक एक वर्षका समय बीत गया। इतने दिनोंतक राजा अम्बरीष उनके दर्शनकी आकाङ्क्षा से केवल जल पीकर ही रहे ॥ २३ ॥ जब दुर्वासाजी चले गये, तब उनके भोजनसे बचे हुए अत्यन्त पवित्र अन्न का उन्होंने भोजन किया। अपने कारण दुर्वासाजी का दु:ख में पडऩा और फिर अपनी ही प्रार्थना से उनका छूटनाइन दोनों बातों को उन्होंने अपनेद्वारा होनेपर भी भगवान्‌ की ही महिमा समझा ॥ २४ ॥ राजा अम्बरीषमें ऐसे-ऐसे अनेकों गुण थे। अपने समस्त कर्मोंके द्वारा वे परब्रह्म परमात्मा श्रीभगवान्‌ में भक्तिभाव की अभिवृद्धि करते रहते थे। उस भक्ति के प्रभाव से उन्होंने ब्रह्मलोक तक के समस्त भोगों को नरक के समान समझा ॥ २५ ॥ तदनन्तर राजा अम्बरीष ने अपने ही समान भक्त पुत्रोंपर राज्यका भार छोड़ दिया और स्वयं वे वनमें चले गये। वहाँ वे बड़ी धीरता के साथ आत्मस्वरूप भगवान्‌ में अपना मन लगाकर गुणों के प्रवाहरूप संसार से मुक्त हो गये ॥ २६ ॥ परीक्षित्‌ ! महाराज अम्बरीष का यह परम पवित्र आख्यान है। जो इसका सङ्कीर्तन और स्मरण करता है, वह भगवान्‌ का भक्त हो जाता है ॥ २७ ॥

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां
संहितायां नवमस्कन्धे पञ्चमोऽध्यायः ॥ ५ ॥

 हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से





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