॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
नवम स्कन्ध –छठा अध्याय..(पोस्ट०५)
इक्ष्वाकु के वंशका वर्णन,
मान्धाता और सौभरि ऋषि की कथा
शशबिन्दोर्दुहितरि बिन्दुमत्यामधान् नृपः ।
पुरुकुत्सं अंबरीषं मुचुकुन्दं च योगिनम् ।
तेषां स्वसारः पञ्चाशत् सौभरिं वव्रिरे पतिम् ॥ ३८॥
यमुनान्तर्जले मग्नः तप्यमानः परंतपः ।
निर्वृतिं मीनराजस्य दृष्ट्वा मैथुनधर्मिणः ॥ ३९ ॥
जातस्पृहो नृपं विप्रः कन्यां एकां अयाचत ।
सोऽप्याह गृह्यतां ब्रह्मन् कामं कन्या स्वयंवरे ॥ ४० ॥
स विचिन्त्याप्रियं स्त्रीणां जरठोऽयं असम्मतः ।
वलीपलित एजत्क इत्यहं प्रत्युदाहृतः ॥ ४१ ॥
साधयिष्ये तथात्मानं सुरस्त्रीणामभीप्सितम् ।
किं पुनर्मनुजेन्द्राणां इति व्यवसितः प्रभुः ॥ ४२ ॥
मुनिः प्रवेशितः क्षत्त्रा कन्यान्तःपुरमृद्धिमत् ।
वृतः स राजकन्याभिः एकं पञ्चाशता वरः ॥ ४३ ॥
तासां कलिरभूद् भूयान् तत् अर्थेऽपोह्य सौहृदम् ।
ममानुरूपो नायं व इति तद्गतचेतसाम् ॥ ४४ ॥
स बह्वृचस्ताभिरपारणीय
तपःश्रियानर्घ्यपरिच्छदेषु ।
गृहेषु नानोपवनामलाम्भः
सरःसु सौगन्धिककाननेषु ॥ ४५ ॥
महार्हशय्यासनवस्त्रभूषण
स्नानानुलेपाभ्यवहारमाल्यकैः ।
स्वलङ्कृतस्त्रीपुरुषेषु नित्यदा
रेमेऽनुगायद् द्विजभृङ्गवन्दिषु ॥ ४६ ॥
यद्गार्हस्थ्यं तु संवीक्ष्य सप्तद्वीपवतीपतिः ।
विस्मितः स्तम्भमजहात् सार्वभौमश्रियान्वितम् ॥ ४७ ॥
एवं गृहेष्वभिरतो विषयान् विविधैः सुखैः ।
सेवमानो न चातुष्यद् आज्यस्तोकैरिवानलः ॥ ४८ ॥
राजा मान्धाताकी पत्नी शशबिन्दु की पुत्री बिन्दुमती थी। उसके गर्भसे उनके तीन पुत्र हुए—पुरुकुत्स, अम्बरीष (ये दूसरे अम्बरीष हैं) और योगी मुचुकुन्द। इनकी पचास बहनें थीं। उन पचासोंने अकेले सौभरि ऋषिको पतिके रूपमें वरण किया ॥ ३८ ॥ परम तपस्वी सौभरिजी एक बार यमुनाजलमें डुबकी लगाकर तपस्या कर रहे थे। वहाँ उन्होंने देखा कि एक मत्स्यराज अपनी पत्नियोंके साथ बहुत सुखी हो रहा है ॥ ३९ ॥ उसके इस सुखको देखकर ब्राह्मण सौभरिके मनमें भी विवाह करनेकी इच्छा जग उठी और उन्होंने राजा मान्धाताके पास आकर उनकी पचास कन्याओंमेंसे एक कन्या माँगी। राजाने कहा—‘ब्रह्मन् ! कन्या स्वयंवरमें आपको चुन ले तो आप उसे ले लीजिये’ ॥ ४० ॥ सौभरि ऋषि राजा मान्धाताका अभिप्राय समझ गये। उन्होंने सोचा कि ‘राजाने इसलिये मुझे ऐसा सूखा जवाब दिया है कि अब मैं बूढ़ा हो गया हूँ, शरीरमें झुर्रियाँ पड़ गयी हैं, बाल पक गये हैं और सिर काँपने लगा है। अब कोई स्त्री मुझसे प्रेम नहीं कर सकती ॥ ४१ ॥ अच्छी बात है । मैं अपनेको ऐसा सुन्दर बनाऊँगा कि राजकन्याएँ तो क्या, देवाङ्गनाएँ भी मेरे लिये लालायित हो जायँगी।’ ऐसा सोचकर समर्थ सौभरिजीने वैसा ही किया ॥ ४२ ॥
फिर क्या था, अन्त:पुर के रक्षक ने सौभरि मुनि को कन्याओं के सजे-सजाये महल में पहुँचा दिया। फिर तो उन पचासों राजकन्याओंने एक सौभरिको ही अपना पति चुन लिया ॥ ४३ ॥ उन कन्याओं का मन सौभरिजी में इस प्रकार आसक्त हो गया कि वे उनके लिये आपस के प्रेमभावको तिलाञ्जलि देकर परस्पर कलह करने लगीं और एक-दूसरीसे कहने लगीं कि ‘ये तुम्हारे योग्य नहीं, मेरे योग्य हैं’ ॥ ४४ ॥ ऋग्वेदी सौभरिने उन सभीका पाणिग्रहण कर लिया। वे अपनी अपार तपस्याके प्रभावसे बहुमूल्य सामग्रियोंसे सुसज्जित, अनेकों उपवनों और निर्मल जलसे परिपूर्ण सरोवरोंसे युक्त एवं सौगन्धिक पुष्पोंके बगीचोंसे घिरे महलोंमें बहुमूल्य शय्या, आसन, वस्त्र, आभूषण, स्नान, अनुलेपन, सुस्वादु भोजन और पुष्पमालाओंके द्वारा अपनी पत्नियोंके साथ विहार करने लगे। सुन्दर-सुन्दर वस्त्राभूषण धारण किये स्त्री-पुरुष सर्वदा उनकी सेवामें लगे रहते। कहीं पक्षी चहकते रहते, तो कहीं भौंरे गुंजार करते रहते और कहीं-कहीं वन्दीजन उनकी विरदावलीका बखान करते रहते ॥ ४५-४६ ॥ सप्तद्वीपवती पृथ्वीके स्वामी मान्धाता सौभरिजीकी इस गृहस्थीका सुख देखकर आश्चर्यचकित हो गये। उनका यह गर्व कि, मैं सार्वभौम सम्पत्तिका स्वामी हूँ, जाता रहा ॥ ४७ ॥ इस प्रकार सौभरिजी गृहस्थीके सुखमें रम गये और अपनी नीरोग इन्द्रियोंसे अनेकों विषयोंका सेवन करते रहे। फिर भी जैसे घीकी बूँदोंसे आग तृप्त नहीं होती, वैसे ही उन्हें सन्तोष नहीं हुआ ॥ ४८ ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
Jay shree Kriishna
जवाब देंहटाएंजय श्री सीताराम
जवाब देंहटाएंॐ नमो भगवते वासुदेवाय 🙏🌹🌺🌹
जवाब देंहटाएं🌺🌸🥀जय श्री हरि: 🙏🙏
जवाब देंहटाएंॐ नमो भगवते वासुदेवाय
नारायण नारायण नारायण नारायण