॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
नवम स्कन्ध –छठा अध्याय..(पोस्ट०४)
इक्ष्वाकु के वंशका वर्णन,
मान्धाता और सौभरि ऋषि की कथा
राजा तद् यज्ञसदनं प्रविष्टो निशि तर्षितः ।
दृष्ट्वा शयानान् विप्रांस्तान् पपौ मंत्रजलं स्वयम् ॥ २७ ॥
उत्थितास्ते निशम्याथ व्युदकं कलशं प्रभो ।
पप्रच्छुः कस्य कर्मेदं पीतं पुंसवनं जलम् ॥ २८ ॥
राज्ञा पीतं विदित्वाथ ईश्वरप्रहितेन ते ।
ईश्वराय नमश्चक्रुः अहो दैवबलं बलम् ॥ २९ ॥
ततः काल उपावृत्ते कुक्षिं निर्भिद्य दक्षिणम् ।
युवनाश्वस्य तनयः चक्रवर्ती जजान ह ॥ ३० ॥
कं धास्यति कुमारोऽयं स्तन्यं रोरूयते भृशम् ।
मां धाता वत्स मा रोदीः इतीन्द्रो देशिनीमदात् ॥ ३१ ॥
न ममार पिता तस्य विप्रदेवप्रसादतः ।
युवनाश्वोऽथ तत्रैव तपसा सिद्धिमन्वगात् ॥ ३२ ॥
त्रसद्दस्युरितीन्द्रोऽङ्ग विदधे नाम यस्य वै ।
यस्मात् त्रसन्ति हि उद्विग्ना दस्यवो रावणादयः ॥ ३३ ॥
यौवनाश्वोऽथ मान्धाता चक्रवर्त्यवनीं प्रभुः ।
सप्तद्वीपवतीमेकः शशासाच्युततेजसा ॥ ३४ ॥
ईजे च यज्ञं क्रतुभिः आत्मविद् भूरिदक्षिणैः ।
सर्वदेवमयं देवं सर्वात्मकमतीन्द्रियम् ॥ ३५ ॥
द्रव्यं मंत्रो विधिर्यज्ञो यजमानस्तथर्त्विजः ।
धर्मो देशश्च कालश्च सर्वं एतद् यदात्मकम् ॥ ३६ ॥
यावत् सूर्य उदेति स्म यावच्च प्रतितिष्ठति ।
सर्वं तत् यौवनाश्वस्य मान्धातुः क्षेत्रमुच्यते ॥ ३७ ॥
एक दिन राजा युवनाश्व को रात्रि के समय बड़ी प्यास लगी। वह
यज्ञशाला में गया, किन्तु वहाँ देखा कि ऋषिलोग तो सो रहे हैं। तब जल
मिलने का और कोई उपाय न देख उसने वह मन्त्र से अभिमन्त्रित जल ही पी लिया ॥ २७ ॥
परीक्षित् ! जब प्रात:काल ऋषिलोग सोकर उठे और उन्होंने देखा कि कलशमें तो जल ही
नहीं है, तब उन लोगोंने पूछा कि ‘यह
किसका काम है ? पुत्र उत्पन्न करनेवाला जल किसने पी लिया ?’
॥ २८ ॥ अन्तमें जब उन्हें यह मालूम हुआ कि भगवान्की प्रेरणासे राजा
युवनाश्वने ही उस जलको पी लिया है, तो उन लोगोंने भगवान्के
चरणोंमें नमस्कार किया और कहा—‘धन्य है ! भगवान्का बल ही
वास्तवमें बल है’ ॥ २९ ॥ इसके बाद प्रसवका समय आनेपर
युवनाश्वकी दाहिनी कोख फाडक़र उसके एक चक्रवर्ती पुत्र उत्पन्न हुआ ॥ ३० ॥ उसे रोते
देख ऋषियोंने कहा—‘यह बालक दूधके लिये बहुत रो रहा है;
अत: किसका दूध पियेगा ?’ तब इन्द्रने कहा,
‘मेरा पियेगा’ ‘(मां धाता)’ ‘बेटा ! तू रो मत।’ यह कहकर इन्द्रने अपनी तर्जनी
अँगुली उसके मुँहमें डाल दी ॥ ३१ ॥ ब्राह्मण और देवताओंके प्रसादसे उस बालकके पिता
युवनाश्वकी भी मृत्यु नहीं हुई। वह वहीं तपस्या करके मुक्त हो गया ॥ ३२ ॥
परीक्षित् ! इन्द्रने उस बालकका नाम रखा त्रसद्दस्यु, क्योंकि
रावण आदि दस्यु (लुटेरे) उससे उद्विग्न एवं भयभीत रहते थे ॥ ३३ ॥ युवनाश्व के
पुत्र मान्धाता (त्रसद्दस्यु) चक्रवर्ती राजा हुए। भगवान् के तेज से तेजस्वी होकर
उन्होंने अकेले ही सातों द्वीपवाली पृथ्वीका शासन किया ॥ ३४ ॥ वे यद्यपि
आत्मज्ञानी थे, उन्हें कर्म-काण्ड की कोई विशेष आवश्यकता
नहीं थी—फिर भी उन्होंने बड़ी-बड़ी दक्षिणावाले यज्ञोंसे उन
यज्ञस्वरूप प्रभुकी आराधना की जो स्वयंप्रकाश, सर्वदेवस्वरूप,
सर्वात्मा एवं इन्द्रियातीत हैं ॥ ३५ ॥ भगवान्के अतिरिक्त और है ही
क्या ? यज्ञ की सामग्री, मन्त्र,
विधि-विधान, यज्ञ, यजमान,
ऋत्विज्, धर्म, देश और
काल—यह सब-का-सब भगवान् का ही स्वरूप तो है ॥ ३६ ॥
परीक्षित् ! जहाँ से सूर्य का उदय होता है और जहाँ वे अस्त होते हैं, वह सारा-का-सारा भूभाग युवनाश्व के पुत्र मान्धाता के ही अधिकारमें था ॥३७॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय 🙏🌹🌺🙏
जवाब देंहटाएंJay shree Krishna
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जवाब देंहटाएं🌷🍂🥀जय श्री हरि: 🙏🙏
जवाब देंहटाएंॐ नमो भगवते वासुदेवाय
नारायण नारायण नारायण नारायण