॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
नवम स्कन्ध –छठा अध्याय..(पोस्ट०६)
इक्ष्वाकु के वंशका वर्णन,
मान्धाता और सौभरि ऋषि की कथा
स कदाचिद् उपासीन आत्मापह्नवमात्मनः ।
ददर्श बह्वृचाचार्यो मीनसङ्गसमुत्थितम् ॥ ४९ ॥
अहो इमं पश्यत मे विनाशं
तपस्विनः सच्चरितव्रतस्य ।
अन्तर्जले वारिचरप्रसङ्गात्
प्रच्यावितं ब्रह्म चिरं धृतं यत् ॥ ५० ॥
सङ्गं त्यजेत मिथुनव्रतीनां मुमुक्षुः ।
सर्वात्मना न विसृजेद् बहिरिन्द्रियाणि ॥
एकश्चरन् रहसि चित्तमनन्त ईशे ।
युञ्जीत तद्व्रतिषु साधुषु चेत् प्रसङ्गः ॥ ५१ ॥
एकस्तपस्व्यहमथाम्भसि मत्स्यसङ्गात्
पञ्चाशदासमुत पञ्चसहस्रसर्गः ।
नान्तं व्रजाम्युभयकृत्यमनोरथानां
मायागुणैः हृतमतिर्विषयेऽर्थभावः ॥ ५२ ॥
एवं वसन् गृहे कालं विरक्तो न्यासमास्थितः ।
वनं जगाम अनुययुः तत्पत्न्यः पतिदेवताः ॥ ५३ ॥
तत्र तप्त्वा तपस्तीक्ष्णं आत्मदर्शनमात्मवान् ।
सहैवाग्निभिरात्मानं युयोज परमात्मनि ॥ ५४ ॥
ताः स्वपत्युर्महाराज निरीक्ष्याध्यात्मिकीं गतिम् ।
अन्वीयुस्तत्प्रभावेण अग्निं शान्तमिवार्चिषः ॥ ५५ ॥
ऋग्वेदाचार्य सौभरि जी एक दिन स्वस्थ चित्त से बैठे हुए थे। उस समय उन्होंने देखा कि मत्स्यराज के क्षणभर के सङ्ग से मैं किस प्रकार अपनी तपस्या तथा अपना आपा तक खो बैठा ॥ ४९ ॥ वे सोचने लगे— ‘अरे, मैं तो बड़ा तपस्वी था। मैंने भलीभाँति अपने व्रतों का अनुष्ठान भी किया था। मेरा यह अध:पतन तो देखो ! मैंने दीर्घकालसे अपने ब्रह्मतेजको अक्षुण्ण रखा था, परंतु जलके भीतर विहार करती हुई एक मछलीके संसर्गसे मेरा वह ब्रह्मतेज नष्ट हो गया ॥ ५० ॥ अत: जिसे मोक्षकी इच्छा है, उस पुरुषको चाहिये कि वह भोगी प्राणियोंका सङ्ग सर्वथा छोड़ दे और एक क्षणके लिये भी अपनी इन्द्रियोंको बहिर्मुख न होने दे। अकेला ही रहे और एकान्तमें अपने चित्तको सर्वशक्तिमान् भगवान्में ही लगा दे। यदि सङ्ग करनेकी आवश्यकता ही हो तो भगवान्के अनन्यप्रेमी निष्ठावान् महात्माओंका ही सङ्ग करे ॥ ५१ ॥ मैं पहले एकान्तमें अकेला ही तपस्यामें संलग्र था। फिर जलमें मछलीका सङ्ग होनेसे विवाह करके पचास हो गया और फिर सन्तानोंके रूपमें पाँच हजार। विषयोंमें सत्यबुद्धि होनेसे मायाके गुणोंने मेरी बुद्धि हर ली। अब तो लोक और परलोकके सम्बन्धमें मेरा मन इतनी लालसाओंसे भर गया है कि मैं किसी तरह उनका पार ही नहीं पाता ॥ ५२ ॥ इस प्रकार विचार करते हुए वे कुछ दिनोंतक तो घरमें ही रहे। फिर विरक्त होकर उन्होंने संन्यास ले लिया और वे वनमें चले गये। अपने पतिको ही सर्वस्व माननेवाली उनकी पत्नियोंने भी उनके साथ ही वनकी यात्रा की ॥ ५३ ॥ वहाँ जाकर परम संयमी सौभरिजीने बड़ी घोर तपस्या की, शरीरको सुखा दिया तथा आहवनीय आदि अग्नियोंके साथ ही अपने-आपको परमात्मामें लीन कर दिया ॥ ५४ ॥ परीक्षित् ! उनकी पत्नियोंने जब अपने पति सौभरि मुनिकी आध्यात्मिक गति देखी, तब जैसे ज्वालाएँ शान्त अग्नि में लीन हो जाती हैं—वैसे ही वे उनके प्रभावसे सती होकर उन्हींमें लीन हो गयीं, उन्हींकी गतिको प्राप्त हुर्ईं ॥ ५५ ॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां
संहितायां नवमस्कन्धे षष्ठोऽध्यायः ॥ ६ ॥
हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
Jay shree Krishna
जवाब देंहटाएंॐ नमो भगवते वासुदेवाय
जवाब देंहटाएं🏵️🍂🌾जय श्री हरि: 🙏🙏
जवाब देंहटाएंॐ नमो भगवते वासुदेवाय
नारायण नारायण नारायण नारायण
जय श्री सीताराम
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