॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
नवम स्कन्ध –सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)
राजा त्रिशङ्कु और हरिश्चन्द्र की
कथा
श्रीशुक उवाच ।
मान्धातुः पुत्रप्रवरो योऽम्बरीषः प्रकीर्तितः ।
पितामहेन प्रवृतो यौवनाश्वश्च तत्सुतः ।
हारीतस्तस्य पुत्रोऽभूत् मान्धातृप्रवरा इमे ॥ १ ॥
नर्मदा भ्रातृभिर्दत्ता पुरुकुत्साय योरगैः ।
तया रसातलं नीतो भुजगेन्द्रप्रयुक्तया ॥ २ ॥
गन्धर्वान् अवधीत् तत्र वध्यान् वै विष्णुशक्तिधृक् ।
नागाल्लब्धवरः सर्पात् अभयं स्मरतामिदम् ॥ ३ ॥
त्रसद्दस्युः पौरुकुत्सो योऽनरण्यस्य देहकृत् ।
हर्यश्वः तत्सुतः तस्मात् अरुणोऽथ त्रिबन्धनः ॥ ४ ॥
तस्य सत्यव्रतः पुत्रः त्रिशङ्कुरिति विश्रुतः ।
प्राप्तश्चाण्डालतां शापाग् गुरोः कौशिकतेजसा ॥ ५ ॥
सशरीरो गतः स्वर्गं अद्यापि दिवि दृश्यते ।
पातितोऽवाक्शिरा देवैः तेनैव स्तम्भितो बलात् ॥ ६ ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित् ! मैं वर्णन कर चुका हूँ कि मान्धाता के पुत्रों में सबसे श्रेष्ठ अम्बरीष थे। उनके दादा युवनाश्वने उन्हें पुत्र रूप में स्वीकार कर लिया। उनका पुत्र हुआ यौवनाश्व और यौवनाश्वका हारीत। मान्धाता के वंश में ये तीन अवान्तर गोत्रों के प्रवर्तक हुए ॥ १ ॥ नागों ने अपनी बहिन नर्मदाका विवाह पुरुकुत्स से कर दिया था। नागराज वासुकि की आज्ञा से नर्मदा अपने पतिको रसातलमें ले गयी ॥ २ ॥ वहाँ भगवान् की शक्ति से सम्पन्न होकर पुरुकुत्स ने वध करने योग्य गन्धर्वों को मार डाला। इसपर नागराज ने प्रसन्न होकर पुरुकुत्सको वर दिया कि जो इस प्रसङ्ग का स्मरण करेगा, वह सर्पोंसे निर्भय हो जायगा ॥ ३ ॥ राजा पुरुकुत्सका पुत्र त्रसद्दस्यु था। उसके पुत्र हुए अनरण्य। अनरण्यके हर्यश्व, उसके अरुण और अरुणके त्रिबन्धन हुए ॥ ४ ॥ त्रिबन्धन के पुत्र सत्यव्रत हुए। यही सत्यव्रत त्रिशङ्कु के नाम से विख्यात हुए। यद्यपि त्रिशङ्कु अपने पिता और गुरुके शापसे चाण्डाल हो गये थे, परंतु विश्वामित्रजी के प्रभाव से वे सशरीर स्वर्ग में चले गये। देवताओं ने उन्हें वहाँसे ढकेल दिया और वे नीचेको सिर किये हुए गिर पड़े; परंतु विश्वामित्रजी ने अपने तपोबल से उन्हें आकाशमें ही स्थिर कर दिया। वे अब भी आकाश में लटके हुए दीखते हैं ॥ ५-६ ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
Jay shree Krishna
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जवाब देंहटाएं🏵️🎋💐जय श्री हरि: 🙏🙏
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नारायण नारायण नारायण नारायण