मंगलवार, 14 अप्रैल 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण नवम स्कन्ध –उन्नीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥



श्रीमद्भागवतमहापुराण

नवम स्कन्ध उन्नीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)



ययातिका गृहत्याग


तमेव प्रेष्ठतमया रममाणमजान्यया ।

विलोक्य कूपसंविग्ना नामृष्यद् बस्तकर्म तत् ॥ ७ ॥

तं दुर्हृदं सुहृद्‌रूपं कामिनं क्षणसौहृदम् ।

इन्द्रियारामं उत्सृज्य स्वामिनं दुःखिता ययौ ॥ ८ ॥

सोऽपि चानुगतः स्त्रैणः कृपणस्तां प्रसादितुम् ।

कुर्वन्निडविडाकारं नाशक्नोत् पथि संधितुम् ॥ ९ ॥

तस्य तत्र द्विजः कश्चित् अजास्वाम्यच्छिनद् रुषा ।

लम्बन्तं वृषणं भूयः सन्दधेऽर्थाय योगवित् ॥ १० ॥

संबद्धवृषणः सोऽपि ह्यजया कूपलब्धया ।

कालं बहुतिथं भद्रे कामैर्नाद्यापि तुष्यति ॥ ११ ॥

तथाहं कृपणः सुभ्रु भवत्याः प्रेमयन्त्रितः ।

आत्मानं नाभिजानामि मोहितस्तव मायया ॥ १२ ॥

यत् पृथिव्यां व्रीहियवं हिरण्यं पशवः स्त्रियः ।

न दुह्यन्ति मनःप्रीतिं पुंसः कामहतस्य ते ॥ १३ ॥



जब उसकी कूएँमेंसे निकाली हुई प्रियतमा बकरीने देखा कि मेरा पति तो अपनी दूसरी प्रियतमा बकरीसे विहार कर रहा है, तो उसे बकरेकी यह करतूत सहन न हुई ॥ ७ ॥ उसने देखा कि यह तो बड़ा कामी है, इसके प्रेमका कोई भरोसा नहीं है और यह मित्रके रूपमें शत्रुका काम कर रहा है। अत: वह बकरी उस इन्द्रियलोलुप बकरेको छोडक़र बड़े दु:खसे अपने पालने वालेके पास चली गयी ॥ ८ ॥ वह दीन कामी बकरा उसे मनानेके लिये में-मेंकरता हुआ उसके पीछे-पीछे चला। परंतु उसे मार्गमें मना न सका ॥ ९ ॥ उस बकरीका स्वामी एक ब्राह्मण था। उसने क्रोधमें आकर बकरेके लटकते हुए अण्डकोषको काट दिया। परंतु फिर उस बकरीका ही भला करनेके लिये फिरसे उसे जोड़ भी दिया। उसे इस प्रकारके बहुत-से उपाय मालूम थे ॥ १० ॥ प्रिये ! इस प्रकार अण्डकोष जुड़ जानेपर वह बकरा फिर कूएँसे निकली हुई बकरीके साथ बहुत दिनोंतक विषयभोग करता रहा, परंतु आजतक उसे सन्तोष न हुआ ॥ ११ ॥ सुन्दरी ! मेरी भी यही दशा है। तुम्हारे प्रेमपाशमें बँधकर मैं भी अत्यन्त दीन हो गया। तुम्हारी मायासे मोहित होकर मैं अपने-आपको भी भूल गया हूँ ॥ १२ ॥
प्रिये ! पृथ्वीमें जितने भी धान्य (चावल, जौ आदि), सुवर्ण, पशु और स्त्रियाँ हैंवे सब-के-सब मिलकर भी उस पुरुषके मनको सन्तुष्ट नहीं कर सकते, जो कामनाओंके प्रहारसे जर्जर हो रहा है ॥ १३ ॥



शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से






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