बुधवार, 15 अप्रैल 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण नवम स्कन्ध –उन्नीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥



श्रीमद्भागवतमहापुराण

नवम स्कन्ध उन्नीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)



ययातिका गृहत्याग


न जातु कामः कामानां उपभोगेन शाम्यति ।

हविषा कृष्णवर्त्मेव भूय एवाभिवर्धते ॥ १४ ॥

यदा न कुरुते भावं सर्वभूतेष्वमंगलम् ।

समदृष्टेस्तदा पुंसः सर्वाः सुखमया दिशः ॥ १५ ॥

या दुस्त्यजा दुर्मतिभिः जीर्यतो या न जीर्यते ।

तां तृष्णां दुःखनिवहां शर्मकामो द्रुतं त्यजेत् ॥ १६ ॥

मात्रा स्वस्रा दुहित्रा वा नाविविक्तासनो भवेत् ।

बलवान् इन्द्रियग्रामो विद्वांसमपि कर्षति ॥ १७ ॥

पूर्णं वर्षसहस्रं मे विषयान् सेवतोऽसकृत् ।

तथापि चानुसवनं तृष्णा तेषूपजायते ॥ १८ ॥

तस्मादेतामहं त्यक्त्वा ब्रह्मण्यध्याय मानसम् ।

निर्द्वन्द्वो निरहंकारः चरिष्यामि मृगैः सह ॥ १९ ॥

दृष्टं श्रुतमसद् बुद्ध्वा नानुध्यायेन्न सन्दिशेत् ।

संसृतिं चात्मनाशं च तत्र विद्वान् स आत्मदृक् ॥ २० ॥



विषयोंके भोगनेसे भोगवासना कभी शान्त नहीं हो सकती। बल्कि जैसे घीकी आहुति डालनेपर आग और भडक़ उठती है, वैसे ही भोगवासनाएँ भी भोगोंसे प्रबल हो जाती हैं ॥ १४ ॥ जब मनुष्य किसी भी प्राणी और किसी भी वस्तुके साथ राग-द्वेषका भाव नहीं रखता, तब वह समदर्शी हो जाता है तथा उसके लिये सभी दिशाएँ सुखमयी बन जाती हैं ॥ १५ ॥ विषयोंकी तृष्णा ही दु:खोंका उद्गम स्थान है। मन्दबुद्धि लोग बड़ी कठिनाईसे उसका त्याग कर सकते हैं। शरीर बूढ़ा हो जाता है, पर तृष्णा नित्य नवीन ही होती जाती है। अत: जो अपना कल्याण चाहता है, उसे शीघ्रसे-शीघ्र इस तृष्णा (भोग-वासना) का त्याग कर देना चाहिये ॥ १६ ॥ और तो क्याअपनी मा, बहिन और कन्याके साथ भी अकेले एक आसनपर सटकर नहीं बैठना चाहिये। इन्द्रियाँ इतनी बलवान् हैं कि वे बड़े-बड़े विद्वानोंको भी विचलित कर देती हैं ॥ १७ ॥ विषयोंका बार-बार सेवन करते-करते मेरे एक हजार वर्ष पूरे हो गये, फिर भी क्षण-प्रति-क्षण उन भोगोंकी लालसा बढ़ती ही जा रही है ॥ १८ ॥ इसलिये मैं अब भोगोंकी वासना-तृष्णाका परित्याग करके अपना अन्त:करण परमात्माके प्रति समर्पित कर दूँगा और शीत-उष्ण, सुख-दु:ख आदिके भावोंसे ऊपर उठकर अहंकारसे मुक्त हो हरिनोंके साथ वनमें विचरूँगा ॥ १९ ॥ लोक-परलोक दोनोंके ही भोग असत् हैं, ऐसा समझकर न तो उनका चिन्तन करना चाहिये और न भोग ही। समझना चाहिये कि उनके चिन्तनसे ही जन्म-मृत्युरूप संसारकी प्राप्ति होती है और उनके भोगसे तो आत्मनाश ही हो जाता है। वास्तवमें इनके रहस्यको जानकर इनसे अलग रहनेवाला ही आत्मज्ञानी है॥ २० ॥



शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


4 टिप्‍पणियां:

  1. ॐ नमो भगवते वासुदेवाय 🙏🌹🌺🙏

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  2. ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

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  3. 🌹🥀🌾जय श्री हरि: 🙏🙏
    ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
    नारायण नारायण नारायण नारायण

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