रविवार, 26 अप्रैल 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – पहला अध्याय..(पोस्ट०१)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥



श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) पहला अध्याय..(पोस्ट०१)



भगवान्‌ के द्वारा पृथ्वी को आश्वासन, वसुदेव-देवकी का विवाह

और कंस के द्वारा देवकी के छ: पुत्रों  हत्या



श्रीराजोवाच ।

कथितो वंशविस्तारो भवता सोमसूर्ययोः ।

राज्ञां च उभयवंश्यानां चरितं परमाद्‍भुतम् ॥ १ ॥

यदोश्च धर्मशीलस्य नितरां मुनिसत्तम ।

तत्रांशेन अवतीर्णस्य विष्णोर्वीर्याणि शंस नः ॥ २ ॥

अवतीर्य यदोर्वंशे भगवान् भूतभावनः ।

कृतवान् यानि विश्वात्मा तानि नो वद विस्तरात् ॥ ३ ॥

निवृत्ततर्षैः उपगीयमानाद्

भवौषधात् श्रोत्रमनोऽभिरामात् ।

क उत्तमश्लोकगुणानुवादात्

पुमान् विरज्येत विना पशुघ्नात् ॥ ४ ॥

पितामहा मे समरेऽमरञ्जयैः

देवव्रताद्यातिरथैस्तिमिङ्‌गिलैः ।

दुरत्ययं कौरवसैन्यसागरं

कृत्वातरन् वत्सपदं स्म यत्प्लवाः ॥ ५ ॥

द्रौण्यस्त्रविप्लुष्टमिदं मदङ्‌गं

सन्तानबीजं कुरुपाण्डवानाम् ।

जुगोप कुक्षिं गत आत्तचक्रो

मातुश्च मे यः शरणं गतायाः ॥ ६ ॥

वीर्याणि तस्याखिलदेहभाजां

अन्तर्बहिः पूरुषकालरूपैः ।

प्रयच्छतो मृत्युमुतामृतं च

मायामनुष्यस्य वदस्व विद्वन् ॥ ७ ॥



राजा परीक्षित्‌ने पूछाभगवन् ! आपने चन्द्रवंश और सूर्यवंश के विस्तार तथा दोनों वंशों के राजाओं का अत्यन्त अद्भुत चरित्र वर्णन किया। भगवान्‌ के परम प्रेमी मुनिवर! आपने स्वभाव से ही धर्मप्रेमी यदुवंश का भी विशद वर्णन किया। अब कृपा करके उसी वंश में अपने अंश श्रीबलराम जी के साथ अवतीर्ण हुए भगवान्‌ श्रीकृष्ण के परम पवित्र चरित्र भी हमें सुनाइये ॥ १-२ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्ण समस्त प्राणियोंके जीवनदाता एवं सर्वात्मा हैं। उन्होंने यदुवंश में अवतार लेकर जो-जो लीलाएँ कीं, उनका विस्तारसे हमलोगोंको श्रवण कराइये ॥ ३ ॥ जिनकी तृष्णाकी प्यास सर्वदाके लिये बुझ चुकी है, वे जीवन्मुक्त महापुरुष जिसका पूर्ण प्रेमसे अतृप्त रहकर गान किया करते हैं, मुमुक्षुजनोंके लिये जो भवरोगका रामबाण औषध है तथा विषयी लोगोंके लिये भी उनके कान और मनको परम आह्लाद देनेवाला है, भगवान्‌ श्रीकृष्णचन्द्रके ऐसे सुन्दर, सुखद, रसीले, गुणानुवाद से पशुघाती अथवा आत्मघाती मनुष्यके अतिरिक्त और ऐसा कौन है जो विमुख हो जाय, उससे प्रीति न करे ? ॥ ४ ॥ (श्रीकृष्ण तो मेरे कुलदेव ही हैं।) जब कुरुक्षेत्र में महाभारत-युद्ध हो रहा था और देवताओं को भी जीत लेनेवाले भीष्मपितामह आदि अतिरथियोंसे मेरे दादा पाण्डवोंका युद्ध हो रहा था, उस समय कौरवोंकी सेना उनके लिये अपार समुद्रके समान थीजिसमें भीष्म आदि वीर बड़े-बड़े मच्छोंको भी निगल जानेवाले तिमिङ्गिल मच्छोंकी भाँति भय उत्पन्न कर रहे थे। परंतु मेरे स्वनाम-धन्य पितामह भगवान्‌ श्रीकृष्णके चरणकमलोंकी नौकाका आश्रय लेकर उस समुद्रको अनायास ही पार कर गयेठीक वैसे ही जैसे कोई मार्गमें चलता हुआ स्वभावसे ही बछड़ेके खुरका गड्ढा पार कर जाय ॥ ५ ॥ महाराज ! मेरा यह शरीरजो आपके सामने है तथा जो कौरव और पाण्डव दोनों ही वंशोंका एकमात्र सहारा थाअश्वत्थामा के ब्रह्मास्त्र से जल चुका था। उस समय मेरी माता जब भगवान्‌ की शरणमें गयीं, तब उन्होंने हाथमें चक्र लेकर मेरी माता के गर्भ में प्रवेश किया और मेरी रक्षा की ॥ ६ ॥ (केवल मेरी ही बात नहीं,) वे समस्त शरीरधारियों के भीतर आत्मारूपसे रहकर अमृतत्वका दान कर रहे हैं और बाहर कालरूपसे रहकर मृत्युका [*]। मनुष्यके रूपमें प्रतीत होना, यह तो उनकी एक लीला है। आप उन्हींकी ऐश्वर्य और माधुर्यसे परिपूर्ण लीलाओंका वर्णन कीजिये ॥ ७ ॥

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[*] समस्त देहधारियों के अन्त:करणमें अन्तर्यामीरूपसे स्थित भगवान्‌ उनके जीवन के कारण हैं तथा बाहर कालरूपसे स्थित हुए वे ही उनका नाश करते हैं। अत: जो आत्मज्ञानीजन अन्तर्दृष्टि द्वारा उन अन्तर्यामी की उपासना करते हैं, वे मोक्षरूप अमरपद पाते हैं और जो विषयपरायण अज्ञानी पुरुष बाह्यदृष्टि से विषयचिन्तन में ही लगे रहते हैं, वे जन्म-मरणरूप मृत्यु के भागी होते हैं।



शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


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