॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
नवम स्कन्ध –चौबीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)
विदर्भके वंशका वर्णन
भोजवृष्ण्यन्धकमधु शूरसेनदशार्हकैः
श्लाघनीयेहितः शश्वत्कुरुसृञ्जयपाण्डुभिः ॥ ६३ ॥
स्निग्धस्मितेक्षितोदारैर्वाक्यैर्विक्रमलीलया
नृलोकं रमयामास मूर्त्या सर्वाङ्गरम्यया ॥ ६४ ॥
यस्याननं मकरकुण्डलचारुकर्ण-
भ्राजत्कपोलसुभगं सविलासहासम्
नित्योत्सवं न ततृपुर्दृशिभिः पिबन्त्यो
नार्यो नराश्च मुदिताः कुपिता निमेश्च ॥ ६५ ॥
जातो गतः पितृगृहाद्व्रजमेधितार्थो
हत्वा रिपून्सुतशतानि कृतोरुदारः
उत्पाद्य तेषु पुरुषः क्रतुभिः समीजे
आत्मानमात्मनिगमं प्रथयन्जनेषु ॥ ६६ ॥
पृथ्व्याः स वै गुरुभरं क्षपयन्कुरूणा-
मन्तःसमुत्थकलिना युधि भूपचम्वः
दृष्ट्या विधूय विजये जयमुद्विघोष्य
प्रोच्योद्धवाय च परं समगात्स्वधाम ॥ ६७ ॥
परीक्षित् ! भोज, वृष्णि, अन्धक, मधु, शूरसेन, दशार्ह, कुरु, सृञ्जय और
पाण्डुवंशी वीर निरन्तर भगवान्की लीलाओंकी आदरपूर्वक सराहना करते रहते थे ॥ ६३ ॥
उनका श्यामल शरीर सर्वाङ्ग सुन्दर था। उन्होंने उस मनोरम विग्रहसे तथा अपनी
प्रेमभरी मुसकान, मधुर चितवन, प्रसादपूर्ण
वचन और पराक्रमपूर्ण लीलाके द्वारा सारे मनुष्यलोकको आनन्दमें सराबोर कर दिया था ॥
६४ ॥ भगवान् के मुखकमलकी शोभा तो निराली ही थी। मकराकृति कुण्डलोंसे उनके कान
बड़े कमनीय मालूम पड़ते थे। उनकी आभासे कपोलोंका सौन्दर्य और भी खिल उठता था। जब
वे विलासके साथ हँस देते, तो उनके मुखपर निरन्तर रहनेवाले
आनन्दमें मानो बाढ़-सी आ जाती। सभी नर-नारी अपने नेत्रोंके प्यालोंसे उनके मुखकी
माधुरीका निरन्तर पान करते रहते, परंतु तृप्त नहीं होते। वे
उसका रस ले-लेकर आनन्दित तो होते ही, परंतु पलकें गिरनेसे
उनके गिरानेवाले निमिपर खीझते भी ॥ ६५ ॥ लीलापुरुषोत्तम भगवान् अवतीर्ण हुए मथुरा
में वसुदेवजीके घर, परंतु वहाँ रहे नहीं, वहाँसे गोकुलमें नन्दबाबाके घर चले गये। वहाँ अपना प्रयोजन—जो ग्वाल, गोपी और गौओंको सुखी करना था—पूरा करके मथुरा लौट आये। व्रजमें, मथुरामें तथा
द्वारकामें रहकर अनेकों शत्रुओंका संहार किया। बहुत-सी स्त्रियोंसे विवाह करके
हजारों पुत्र उत्पन्न किये। साथ ही लोगोंमें अपने स्वरूपका साक्षात्कार करानेवाली
अपनी वाणी-स्वरूप श्रुतियोंकी मर्यादा स्थापित करनेके लिये अनेक यज्ञोंके द्वारा
स्वयं अपना ही यजन किया ॥ ६६ ॥ कौरव और पाण्डवोंके बीच उत्पन्न हुए आपसके कलहसे
उन्होंने पृथ्वीका बहुत-सा भार हलका कर दिया तथा युद्धमें अपनी दृष्टिसे ही
राजाओंकी बहुत-सी अक्षौहिणियोंको ध्वंस करके संसारमें अर्जुनकी जीतका डंका पिटवा
दिया। फिर उद्धवको आत्मतत्त्वका उपदेश किया और इसके बाद वे अपने परम धामको सिधार
गये ॥ ६७ ॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे वैयासिक्यामष्टादशसाहस्र्यां
पारमहंस्यां संहितायां नवमस्कन्धे
श्रीसूर्यसोमवंशानुकीर्तने
यदुवंशानुकीर्तनं नाम चतुर्विंशोऽध्यायः
इति नवमः स्कन्धः समाप्तः
॥ हरि: ॐ तत्सत् ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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