॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)
गोकुल
में भगवान् का जन्ममहोत्सव
अवाद्यन्त
विचित्राणि वादित्राणि महोत्सवे ।
कृष्णे
विश्वेश्वरेऽनन्ते नंदस्य व्रजमागते ॥ १३ ॥
गोपाः
परस्परं हृष्टा दधिक्षीरघृतांबुभिः ।
आसिञ्चन्तो
विलिंपन्तो नवनीतैश्च चिक्षिपुः ॥ १४ ॥
नन्दो
महामनास्तेभ्यो वासोऽलंकारगोधनम् ।
सूतमागधवन्दिभ्यो
येऽन्ये विद्योपजीविनः ॥ १५ ॥
तैस्तैः
कामैरदीनात्मा यथोचितं अपूजयत् ।
विष्णोराराधनार्थाय
स्वपुत्रस्योदयाय च ॥ १६ ॥
रोहिणी
च महाभागा नंदगोपाभिनंदिता ।
व्यचरद्
दिव्यवासःस्रक् कण्ठाभरणभूषिता ॥ १७ ॥
तत
आरभ्य नंदस्य व्रजः सर्वसमृद्धिमान् ।
हरेर्निवासात्मगुणै
रमाक्रीडमभून् नृप ॥ १८ ॥
भगवान्
श्रीकृष्ण समस्त जगत् के एकमात्र स्वामी हैं। उनके ऐश्वर्य, माधुर्य, वात्सल्य—सभी अनन्त
हैं। वे जब नन्दबाबा के व्रजमें प्रकट हुए, उस समय उनके
जन्मका महान् उत्सव मनाया गया। उसमें बड़े-बड़े विचित्र और मङ्गलमय बाजे बजाये
जाने लगे ॥ १३ ॥ आनन्दसे मतवाले होकर गोपगण एक-दूसरेपर दही, दूध,
घी और पानी उड़ेलने लगे। एक-दूसरेके मुँहपर मक्खन मलने लगे और मक्खन
फेंक-फेंककर आनन्दोत्सव मनाने लगे ॥ १४ ॥ नन्दबाबा स्वभावसे ही परम उदार और मनस्वी
थे। उन्होंने गोपोंको बहुत-से वस्त्र, आभूषण और गौएँ दीं।
सूत-मागध-वंदीजनों, नृत्य, वाद्य आदि
विद्याओंसे अपना जीवन-निर्वाह करनेवालों तथा दूसरे गुणीजनोंको भी नन्दबाबाने
प्रसन्नतापूर्वक उनकी मुँहमाँगी वस्तुएँ देकर उनका यथोचित सत्कार किया। यह सब
करनेमें उनका उद्देश्य यही था कि इन कर्मोंसे भगवान् विष्णु प्रसन्न हों और मेरे
इस नवजात शिशुका मङ्गल हो ॥ १५-१६ ॥ नन्दबाबाके अभिनन्दन करनेपर परम सौभाग्यवती
रोहिणीजी दिव्य वस्त्र, माला और गलेके भाँति-भाँतिके गहनोंसे
सुसज्जित होकर गृहस्वामिनीकी भाँति आने-जानेवाली स्त्रियोंका सत्कार करती हुई विचर
रही थीं ॥ १७ ॥ परीक्षित् ! उसी दिनसे नन्दबाबाके व्रजमें सब प्रकारकी
ऋद्धि-सिद्धियाँ अठखेलियाँ करने लगीं और भगवान् श्रीकृष्णके निवास तथा अपने
स्वाभाविक गुणोंके कारण वह लक्ष्मीजीका क्रीडास्थल बन गया ॥ १८ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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