॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)
गोकुल
में भगवान् का जन्ममहोत्सव
गोपान्
गोकुलरक्षायां निरूप्य मथुरां गतः ।
नंदः
कंसस्य वार्षिक्यं करं दातुं कुरूद्वह ॥ १९ ॥
वसुदेव
उपश्रुत्य भ्रातरं नंदमागतम् ।
ज्ञात्वा
दत्तकरं राज्ञे ययौ तद् अवमोचनम् ॥ २० ॥
तं
दृष्ट्वा सहसोत्थाय देहः प्राणमिवागतम् ।
प्रीतः
प्रियतमं दोर्भ्यां सस्वजे प्रेमविह्वलः ॥ २१ ॥
पूजितः
सुखमासीनः पृष्ट्वा अनामयमादृतः ।
प्रसक्तधीः
स्वात्मजयोः इदमाह विशांपते ॥ २२ ॥
दिष्ट्या
भ्रातः प्रवयस इदानीमप्रजस्य ते ।
प्रजाशाया
निवृत्तस्य प्रजा यत् समपद्यत ॥ २३ ॥
दिष्ट्या
संसारचक्रेऽस्मिन् वर्तमानः पुनर्भवः ।
उपलब्धो
भवानद्य दुर्लभं प्रियदर्शनम् ॥ २४ ॥
नैकत्र
प्रियसंवासः सुहृदां चित्रकर्मणाम् ।
ओघेन
व्यूह्यमानानां प्लवानां स्रोतसो यथा ॥ २५ ॥
कच्चित्
पशव्यं निरुजं भूर्यम्बुतृणवीरुधम् ।
बृहद्वनं
तदधुना यत्रास्से त्वं सुहृद्वृतः ॥ २६ ॥
भ्रातर्मम
सुतः कच्चित् मात्रा सह भवद्व्रजे ।
तातं
भवन्तं मन्वानो भवद्भ्यामुपलालितः ॥ २७ ॥
पुंसस्त्रिवर्गो
विहितः सुहृदो ह्यनुभावितः ।
न
तेषु क्लिश्यमानेषु त्रिवर्गोऽर्थाय कल्पते ॥ २८ ॥
परीक्षित्
! कुछ दिनोंके बाद नन्दबाबाने गोकुलकी रक्षाका भार तो दूसरे गोपोंको सौंप दिया और
वे स्वयं कंसका वाॢषक कर चुकानेके लिये मथुरा चले गये ॥ १९ ॥ जब वसुदेवजीको यह
मालूम हुआ कि हमारे भाई नन्दजी मथुरामें आये हैं और राजा कंसको उसका कर भी दे चुके
हैं,
तब वे जहाँ नन्दबाबा ठहरे हुए थे, वहाँ गये ॥
२० ॥ वसुदेवजीको देखते ही नन्दजी सहसा उठकर खड़े हो गये मानो मृतक शरीरमें प्राण आ
गया हो । उन्होंने बड़े प्रेमसे अपने प्रियतम वसुदेवजीको दोनों हाथोंसे पकडक़र
हृदयसे लगा लिया । नन्दबाबा उस समय प्रेमसे विह्वल हो रहे थे ॥ २१ ॥ परीक्षित् !
नन्दबाबाने वसुदेवजीका बड़ा स्वागत-सत्कार किया । वे आदरपूर्वक आरामसे बैठ गये ।
उस समय उनका चित्त अपने पुत्रोंमें लग रहा था । वे नन्दबाबासे कुशल-मङ्गल पूछकर
कहने लगे ॥ २२ ॥
[वसुदेवजीने
कहा—]‘भाई ! तुम्हारी अवस्था ढल चली थी और अबतक तुम्हें कोई सन्तान नहीं हुई थी
। यहाँतक कि अब तुम्हें सन्तानकी कोई आशा भी न थी । यह बड़े सौभाग्यकी बात है कि
अब तुम्हें सन्तान प्राप्त हो गयी ॥ २३ ॥ यह भी बड़े आनन्दका विषय है कि आज
हमलोगोंका मिलना हो गया । अपने प्रेमियोंका मिलना भी बड़ा दुर्लभ है । इस संसारका
चक्र ही ऐसा है । इसे तो एक प्रकारका पुनर्जन्म ही समझना चाहिये ॥ २४ ॥ जैसे नदीके
प्रबल प्रवाहमें बहते हुए बेड़े और तिनके सदा एक साथ नहीं रह सकते, वैसे ही सगे-सम्बन्धी और प्रेमियोंका भी एक स्थानपर रहना सम्भव नहीं है—यद्यपि वह सबको प्रिय लगता है । क्योंकि सबके प्रारब्धकर्म अलग-अलग होते
हैं ॥ २५ ॥ आजकल तुम जिस महावनमें अपने भाई-बन्धु और स्वजनोंके साथ रहते हो,
उसमें जल, घास और लता-पत्रादि तो भरे-पूरे हैं
न ? वह वन पशुओंके लिये अनुकूल और सब प्रकारके रोगोंसे तो
बचा है ? ॥ २६ ॥ भाई ! मेरा लडक़ा अपनी मा (रोहिणी) के साथ
तुम्हारे व्रजमें रहता है । उसका लालन-पालन तुम और यशोदा करते हो, इसलिये वह तो तुम्हींको अपने पिता-माता मानता होगा । वह अच्छी तरह है न ?
॥ २७ ॥ मनुष्यके लिये वे ही धर्म, अर्थ और काम
शास्त्रविहित हैं, जिनसे उसके स्वजनोंको सुख मिले। जिनसे
केवल अपनेको ही सुख मिलता है; किन्तु अपने स्वजनोंको दु:ख
मिलता है, वे धर्म, अर्थ और काम
हितकारी नहीं हैं’ ॥ २८ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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