॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – तीसरा अध्याय..(पोस्ट०६)
भगवान्
श्रीकृष्ण का प्राकट्य
श्रीवसुदेव
उवाच ।
विदितोऽसि
भवान् साक्षात् पुरुषः प्रकृतेः परः ।
केवलानुभवानन्द
स्वरूपः सर्वबुद्धिदृक् ॥ १३ ॥
स
एव स्वप्रकृत्येदं सृष्ट्वाग्रे त्रिगुणात्मकम् ।
तदनु
त्वं ह्यप्रविष्टः प्रविष्ट इव भाव्यसे ॥ १४ ॥
यथा
इमे अविकृता भावाः तथा ते विकृतैः सह ।
नानावीर्याः
पृथग्भूता विराजं जनयन्ति हि ॥ १५ ॥
सन्निपत्य
समुत्पाद्य दृश्यन्तेऽनुगता इव ।
प्रागेव
विद्यमानत्वात् न तेषां इह संभवः ॥ १६ ॥
एवं
भवान् बुद्ध्यनुमेयलक्षणैः
ग्राह्यैर्गुणैः
सन्नपि तद्गुणाग्रहः ।
अनावृतत्वाद्
बहिरन्तरं न ते
सर्वस्य
सर्वात्मन आत्मवस्तुनः ॥ १७ ॥
य
आत्मनो दृश्यगुणेषु सन्निति
व्यवस्यते
स्व-व्यतिरेकतोऽबुधः ।
विनानुवादं
न च तन्मनीषितं
सम्यग्
यतस्त्यक्तमुपाददत् पुमान् ॥ १८ ॥
वसुदेवजीने
कहा—मैं समझ गया कि आप प्रकृतिसे अतीत साक्षात् पुरुषोत्तम हैं । आपका स्वरूप
है केवल अनुभव और केवल आनन्द । आप समस्त बुद्धियोंके एकमात्र साक्षी हैं ॥ १३ ॥ आप
ही सर्गके आदिमें अपनी प्रकृतिसे इस त्रिगुणमय जगत्की सृष्टि करते हैं । फिर उसमें
प्रविष्ट न होनेपर भी आप प्रविष्टके समान जान पड़ते हैं ॥ १४ ॥ जैसे जबतक
महत्तत्त्व आदि कारण-तत्त्व पृथक्-पृथक् रहते हैं, तबतक उनकी
शक्ति भी पृथक्-पृथक् होती है; जब वे इन्द्रियादि सोलह
विकारोंके साथ मिलते हैं, तभी इस ब्रह्माण्डकी रचना करते हैं
और इसे उत्पन्न करके इसीमें अनुप्रविष्ट-से जान पड़ते हैं; परंतु
सच्ची बात तो यह है कि वे किसी भी पदार्थमें प्रवेश नहीं करते । ऐसा होनेका कारण यह
है कि उनसे बनी हुई जो भी वस्तु है, उसमें वे पहलेसे ही
विद्यमान रहते हैं ॥ १५-१६ ॥ ठीक वैसे ही बुद्धिके द्वारा केवल गुणोंके लक्षणोंका
ही अनुमान किया जाता है और इन्द्रियोंके द्वारा केवल गुणमय विषयोंका ही ग्रहण होता
है । यद्यपि आप उनमें रहते हैं, फिर भी उन गुणोंके ग्रहणसे
आपका ग्रहण नहीं होता । इसका कारण यह है कि आप सब कुछ हैं, सबके
अन्तर्यामी हैं और परमार्थ सत्य, आत्मस्वरूप हैं । गुणोंका
आवरण आपको ढक नहीं सकता । इसलिये आपमें न बाहर है न भीतर । फिर आप किसमें प्रवेश
करेंगे ? (इसलिये प्रवेश न करनेपर भी आप प्रवेश किये हुएके
समान दीखते हैं) ॥ १७ ॥ जो अपने इन दृश्य गुणोंको अपनेसे पृथक् मानकर सत्य समझता
है, वह अज्ञानी है । क्योंकि विचार करनेपर ये देह-गेह आदि
पदार्थ वाग्विलास के सिवा और कुछ नहीं सिद्ध होते । विचारके द्वारा जिस वस्तुका
अस्तित्व सिद्ध नहीं होता, बल्कि जो बाधित हो जाती है,
उसको सत्य माननेवाला पुरुष बुद्धिमान् कैसे हो सकता है ? ॥ १८ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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