॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – दूसरा अध्याय..(पोस्ट०५)
भगवान्
का गर्भ-प्रवेश और देवताओं द्वारा गर्भ-स्तुति
सत्त्वं
विशुद्धं श्रयते भवान्स्थितौ
शरीरिणां
श्रेयौपायनं वपुः
वेदक्रियायोगतपःसमाधिभिस्
तवार्हणं
येन जनः समीहते ॥ ३४ ॥
सत्त्वं
न चेद्धातरिदं निजं भवेद्
विज्ञानमज्ञानभिदापमार्जनम्
गुणप्रकाशैरनुमीयते
भवान्
प्रकाशते
यस्य च येन वा गुणः ॥ ३५ ॥
न
नामरूपे गुणजन्मकर्मभि-
र्निरूपितव्ये
तव तस्य साक्षिणः
मनोवचोभ्यामनुमेयवर्त्मनो
देव
क्रियायां प्रतियन्त्यथापि हि ॥ ३६ ॥
शृण्वन्गृणन्संस्मरयंश्च
चिन्तयन्
नामानि
रूपाणि च मङ्गलानि ते
क्रियासु
यस्त्वच्चरणारविन्दयोर्
आविष्टचेता
न भवाय कल्पते ॥ ३७ ॥
दिष्ट्या
हरेऽस्या भवतः पदो भुवो
भारोऽपनीतस्तव
जन्मनेशितुः
दिष्ट्याङ्कितां
त्वत्पदकैः सुशोभनैर्
द्रक्ष्याम
गां द्यां च तवानुकम्पिताम् ॥ ३८ ॥
आप
संसारकी स्थितिके लिये समस्त देहधारियोंको परम कल्याण प्रदान करनेवाला विशुद्ध
सत्त्वमय,
सच्चिदानन्दमय परम दिव्य मङ्गल-विग्रह प्रकट करते हैं। उस रूपके
प्रकट होनेसे ही आपके भक्त वेद, कर्मकाण्ड, अष्टाङ्गयोग, तपस्या और समाधिके द्वारा आपकी आराधना
करते हैं। बिना किसी आश्रयके वे किसकी आराधना करेंगे ? ॥ ३४
॥ प्रभो ! आप सबके विधाता हैं। यदि आपका यह विशुद्ध सत्त्वमय निज स्वरूप न हो,
तो अज्ञान और उसके द्वारा होनेवाले भेद- भावको नष्ट करनेवाला अपरोक्ष
ज्ञान ही किसीको न हो। जगत् में दीखनेवाले तीनों गुण आपके हैं और आपके द्वारा ही
प्रकाशित होते हैं, यह सत्य है। परंतु इन गुणोंकी प्रकाशक
वृत्तियोंसे आपके स्वरूपका केवल अनुमान ही होता है, वास्तविक
स्वरूपका साक्षात्कार नहीं होता। (आपके स्वरूपका साक्षात्कार तो आपके इस विशुद्ध
सत्त्वमय स्वरूपकी सेवा करनेपर आपकी कृपासे ही होता है) ॥ ३५ ॥ भगवन् ! मन और
वेद-वाणीके द्वारा केवल आपके स्वरूपका अनुमानमात्र होता है। क्योंकि आप उनके
द्वारा दृश्य नहीं; उनके साक्षी हैं। इसलिये आपके गुण,
जन्म और कर्म आदिके द्वारा आपके नाम और रूपका निरूपण नहीं किया जा
सकता। फिर भी प्रभो ! आपके भक्तजन उपासना आदि क्रियायोगोंके द्वारा आपका
साक्षात्कार तो करते ही हैं ॥ ३६ ॥ जो पुरुष आपके मङ्गलमय नामों और रूपोंका श्रवण,
कीर्तन, स्मरण और ध्यान करता है और आपके
चरण-कमलोंकी सेवामें ही अपना चित्त लगाये रहता है—उसे फिर
जन्म-मृत्युरूप संसारके चक्रमें नहीं आना पड़ता ॥ ३७ ॥ सम्पूर्ण दु:खोंके हरनेवाले
भगवन् ! आप सर्वेश्वर हैं । यह पृथ्वी तो आपका चरणकमल ही है । आपके अवतारसे इसका
भार दूर हो गया । धन्य है ! प्रभो ! हमारे लिये यह बड़े सौभाग्यकी बात है कि हमलोग
आपके सुन्दर-सुन्दर चिह्नोंसे युक्त चरणकमलोंके द्वारा विभूषित पृथ्वीको देखेंगे
और स्वर्गलोकको भी आपकी कृपासे कृतार्थ देखेंगे ॥ ३८ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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