गुरुवार, 21 मई 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

नामकरण-संस्कार और बाललीला

कालेनाल्पेन राजर्षे रामः कृष्णश्च गोकुले ।
अघृष्टजानुभिः पद्‌भिः विचक्रमतुरञ्जसा ॥ २६ ॥

राजर्षे ! कुछ ही दिनों में यशोदा और रोहिणी के लाड़ले लाल घुटनों का सहारा लिये बिना अनायास ही खड़े होकर गोकुल में चलने-फिरने लगे [*] ॥ २६ ॥
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[1*] जब श्यामसुन्दर घुटनोंका सहारा लिये बिना चलने लगे, तब वे अपने घरमें अनेकों प्रकारकी कौतुकमयी लीला करने लगे
शून्ये चोरयत: स्वयं निजगृहे हैयङ्गवीनं मणि-
स्तम्भे स्वप्रतिविम्बमीक्षितवतस्तेनैव साद्र्धं भिया ।।
भ्रातर्मा वद मातरं मम समो भागस्तवापीहितो
भुङ्क्ष्वेत्यालपतो हरे: कलवचो मात्रा रह: श्रूयते ।।

एक दिन साँवरे-सलोने व्रजराजकुमार श्रीकन्हैयालालजी अपने सूने घरमें स्वयं ही माखन चुरा रहे थे । उनकी दृष्टि मणिके खम्भेमें पड़े हुए अपने प्रतिविम्बपर पड़ी । अब तो वे डर गये । अपने प्रतिविम्बसे बोले—‘अरे भैया ! मेरी मैया से कहियो मत । तेरा भाग भी मेरे बराबर ही मुझे स्वीकार है; ले, खा । खा ले, भैया !यशोदा माता अपने लालाकी तोतली बोली सुन रही थीं ।
उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ, वे घरमें भीतर घुस आयीं । माताको देखते ही श्रीकृष्णने अपने प्रतिविम्बको दिखाकर बात बदल दी

मात: क एष नवनीतमिदं त्वदीयं लोभेन चोरयितुमद्य गृहं प्रविष्ट: ।।
मद्वारणं न मनुते मयि रोषभाजि रोषं तनोति न हि मे नवनीतलोभ: ।।

मैया ! मैया ! यह कौन है ? लोभवश तुम्हारा माखन चुरानेके लिये आज घरमें घुस आया है । मैं मना करता हूँ तो मानता नहीं है और मैं क्रोध करता हूँ तो यह भी क्रोध करता है । मैया ! तुम कुछ और मत सोचना । मेरे मनमें माखनका तनिक भी लोभ नहीं है ।

अपने दुध-मुँहे शिशुकी प्रतिभा देखकर मैया वात्सल्य-स्नेह के आनन्द में मग्न हो गयीं ।
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एक दिन श्यामसुन्दर माता के बाहर जानेपर घरमें ही माखन-चोरी कर रहे थे । इतनेमें ही दैववश यशोदाजी लौट आयीं और अपने लाड़ले लालको न देखकर पुकारने लगीं

कृष्ण ! क्वासि करोषि किं पितरिति श्रुत्वैव मातुर्वच:
साशङ्कं नवनीतचौर्यविरतो विश्रभ्य तामब्रवीत् ।।
मात: कङ्कणपद्मरागमहसा पाणिर्ममातप्यते
तेनायं नवनीतभाण्डविवरे विन्यस्य निर्वापित:।।

कन्हैया ! कन्हैया ! अरे ओ मेरे बाप ! कहाँ है, क्या कर रहा है ?’ माताकी यह बात सुनते ही माखनचोर श्रीकृष्ण डर गये और माखन-चोरीसे अलग हो गये । फिर थोड़ी देर चुप रहकर यशोदाजीसे बोले—‘मैया, री मैया ! यह जो तुमने मेरे कङ्कणमें पद्मराग जड़ा दिया है, इसकी लपटसे मेरा हाथ जल रहा था । इसीसे मैंने इसे माखनके मटकेमें डालकर बुझाया था ।
माता यह मधुर-मधुर कन्हैयाकी तोतली बोली सुनकर मुग्ध हो गयीं और आओ बेटा !ऐसा कहकर लालाको गोद में उठा लिया और प्यारसे चूमने लगीं ।
                                            

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




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