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ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)
नामकरण-संस्कार
और बाललीला
कालेनाल्पेन
राजर्षे रामः कृष्णश्च गोकुले ।
अघृष्टजानुभिः
पद्भिः विचक्रमतुरञ्जसा ॥ २६ ॥
राजर्षे
! कुछ ही दिनों में यशोदा और रोहिणी के लाड़ले लाल घुटनों का सहारा लिये बिना
अनायास ही खड़े होकर गोकुल में चलने-फिरने लगे [*] ॥ २६ ॥
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जब श्यामसुन्दर घुटनोंका सहारा लिये बिना चलने लगे, तब वे अपने
घरमें अनेकों प्रकारकी कौतुकमयी लीला करने लगे—
शून्ये
चोरयत: स्वयं निजगृहे हैयङ्गवीनं मणि-
स्तम्भे
स्वप्रतिविम्बमीक्षितवतस्तेनैव साद्र्धं भिया ।।
भ्रातर्मा
वद मातरं मम समो भागस्तवापीहितो
भुङ्क्ष्वेत्यालपतो
हरे: कलवचो मात्रा रह: श्रूयते ।।
एक
दिन साँवरे-सलोने व्रजराजकुमार श्रीकन्हैयालालजी अपने सूने घरमें स्वयं ही माखन
चुरा रहे थे । उनकी दृष्टि मणिके खम्भेमें पड़े हुए अपने प्रतिविम्बपर पड़ी । अब
तो वे डर गये । अपने प्रतिविम्बसे बोले—‘अरे भैया ! मेरी
मैया से कहियो मत । तेरा भाग भी मेरे बराबर ही मुझे स्वीकार है; ले, खा । खा ले, भैया !’
यशोदा माता अपने लालाकी तोतली बोली सुन रही थीं ।
उन्हें
बड़ा आश्चर्य हुआ,
वे घरमें भीतर घुस आयीं । माताको देखते ही श्रीकृष्णने अपने
प्रतिविम्बको दिखाकर बात बदल दी—
मात:
क एष नवनीतमिदं त्वदीयं लोभेन चोरयितुमद्य गृहं प्रविष्ट: ।।
मद्वारणं
न मनुते मयि रोषभाजि रोषं तनोति न हि मे नवनीतलोभ: ।।
‘मैया ! मैया ! यह कौन है ? लोभवश तुम्हारा माखन
चुरानेके लिये आज घरमें घुस आया है । मैं मना करता हूँ तो मानता नहीं है और मैं
क्रोध करता हूँ तो यह भी क्रोध करता है । मैया ! तुम कुछ और मत सोचना । मेरे मनमें
माखनका तनिक भी लोभ नहीं है ।’
अपने
दुध-मुँहे शिशुकी प्रतिभा देखकर मैया वात्सल्य-स्नेह के आनन्द में मग्न हो गयीं ।
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एक
दिन श्यामसुन्दर माता के बाहर जानेपर घरमें ही माखन-चोरी कर रहे थे । इतनेमें ही
दैववश यशोदाजी लौट आयीं और अपने लाड़ले लालको न देखकर पुकारने लगीं—
कृष्ण
! क्वासि करोषि किं पितरिति श्रुत्वैव मातुर्वच:
साशङ्कं
नवनीतचौर्यविरतो विश्रभ्य तामब्रवीत् ।।
मात:
कङ्कणपद्मरागमहसा पाणिर्ममातप्यते
तेनायं
नवनीतभाण्डविवरे विन्यस्य निर्वापित:।।
‘कन्हैया ! कन्हैया ! अरे ओ मेरे बाप ! कहाँ है, क्या
कर रहा है ?’ माताकी यह बात सुनते ही माखनचोर श्रीकृष्ण डर
गये और माखन-चोरीसे अलग हो गये । फिर थोड़ी देर चुप रहकर यशोदाजीसे बोले—‘मैया, री मैया ! यह जो तुमने मेरे कङ्कणमें पद्मराग
जड़ा दिया है, इसकी लपटसे मेरा हाथ जल रहा था । इसीसे मैंने
इसे माखनके मटकेमें डालकर बुझाया था ।’
माता
यह मधुर-मधुर कन्हैयाकी तोतली बोली सुनकर मुग्ध हो गयीं और ‘आओ बेटा !’ ऐसा कहकर लालाको गोद में उठा लिया और
प्यारसे चूमने लगीं ।
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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