॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)
नामकरण-संस्कार
और बाललीला
कालेन
व्रजताल्पेन गोकुले रामकेशवौ ।
जानुभ्यां
सह पाणिभ्यां रिङ्गमाणौ विजह्रतुः ॥ २१ ॥
तावङ्घ्रियुग्ममनुकृष्य
सरीसृपन्तौ
घोषप्रघोषरुचिरं
व्रजकर्दमेषु ।
तन्नादहृष्टमनसावनुसृत्य
लोकं
मुग्धप्रभीतवदुपेयतुरन्ति
मात्रोः ॥ २२ ॥
तन्मातरौ
निजसुतौ घृणया स्नुवन्त्यौ
पङ्काङ्गरागरुचिरौ
उपगृह्य दोर्भ्याम् ।
दत्त्वा
स्तनं प्रपिबतोः स्म मुखं निरीक्ष्य
मुग्धस्मिताल्पदशनं
ययतुः प्रमोदम् ॥ २३ ॥
यर्ह्यङ्गनादर्शनीय-कुमारलीलौ
।
अन्तर्व्रजे
तदबलाः प्रगृहीतपुच्छैः ।
वत्सैरितस्तत
उभावनुकृष्यमाणौ
प्रेक्षन्त्य
उज्झितगृहा जहृषुर्हसन्त्यः ॥ २४ ॥
शृङ्ग्यग्निदंष्ट्र्यसिजल
द्विजकण्टकेभ्यः
क्रीडापरावतिचलौ
स्वसुतौ निषेद्धुम् ।
गृह्याणि
कर्तुमपि यत्र न तज्जनन्यौ
शेकात
आपतुरलं मनसोऽनवस्थाम् ॥ २५ ॥
परीक्षित्
! कुछ ही दिनों में राम और श्याम घुटनों और हाथों के बल बकैयाँ चल-चलकर गोकुल में
खेलने लगे ॥ २१ ॥ दोनों भाई अपने नन्हें-नन्हें पाँवों को गोकुल की कीचड़ में घसीटते हुए चलते । उस समय उनके पाँव और कमर के
घुँघरू रुनझुन बजने लगते । वह शब्द बड़ा भला मालूम पड़ता । वे दोनों स्वयं वह
ध्वनि सुनकर खिल उठते । कभी-कभी वे रास्ते चलते किसी अज्ञात व्यक्तिके पीछे हो
लेते । फिर जब देखते कि यह तो कोई दूसरा है, तब झक-से रह जाते
और डरकर अपनी माताओं—रोहिणीजी और यशोदाजीके पास लौट आते ॥ २२
॥ माताएँ यह सब देख-देखकर स्नेहसे भर जातीं । उनके स्तनों से दूध की धारा बहने
लगती थी । जब उनके दोनों नन्हें-नन्हें-से शिशु अपने शरीर में कीचडक़ा अङ्गराग
लगाकर लौटते, तब उनकी सुन्दरता और भी बढ़ जाती थी । माताएँ
उन्हें आते ही दोनों हाथों से गोद में लेकर हृदय से लगा लेतीं और स्तनपान कराने
लगतीं, जब वे दूध पीने लगते और बीच-बीचमें मुसकरा-मुसकराकर
अपनी माताओं की ओर देखने लगते, तब वे उनकी मन्द-मन्द मुसकान,
छोटी-छोटी दँतुलियाँ और भोला-भाला मुँह देखकर आनन्दके समुद्र में
डूबने-उतराने लगतीं ॥ २३ ॥ जब राम और श्याम दोनों कुछ और बड़े हुए, तब व्रजमें घरके बाहर ऐसी-ऐसी बाललीलाएँ करने लगे, जिन्हें
गोपियाँ देखती ही रह जातीं । जब वे किसी बैठे हुए बछड़ेकी पूँछ पकड़ लेते और बछड़े
डरकर इधर-उधर भागते, तब वे दोनों और भी जोरसे पूँछ पकड़ लेते
और बछड़े उन्हें घसीटते हुए दौडऩे लगते । गोपियाँ अपने घरका काम-धंधा छोडक़र यही सब
देखती रहतीं और हँसते-हँसते लोटपोट होकर परम आनन्दमें मग्र हो जातीं ॥ २४ ॥
कन्हैया और बलदाऊ दोनों ही बड़े चञ्चल और बड़े खिलाड़ी थे । वे कहीं हरिन, गाय आदि सींगवाले पशुओंके पास दौड़ जाते, तो कहीं
धधकती हुई आगसे खेलनेके लिये कूद पड़ते । कभी दाँतसे काटनेवाले कुत्तोंके पास
पहुँच जाते, तो कभी आँख बचाकर तलवार उठा लेते । कभी कूएँ या
गड्ढेके पास जलमें गिरते-गिरते बचते, कभी मोर आदि पक्षियों के
निकट चले जाते और कभी काँटोंकी ओर बढ़ जाते थे । माताएँ उन्हें बहुत बरजतीं,
परंतु उनकी एक न चलती । ऐसी स्थिति में वे घरका काम-धंधा भी नहीं
सँभाल पातीं । उनका चित्त बच्चों को भय की वस्तुओं से बचाने की चिन्ता से अत्यन्त
चञ्चल रहता था ॥२५॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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