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ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)
नामकरण-संस्कार
और बाललीला
क्षुण्णाभ्यां
करकुड्मलेन विगलद्वाष्पाम्बुदृग्भ्यां रुदन्
हुं
हुं हूमिति रुद्धकण्ठकुहरादस्पष्टवाग्विभ्रम: ।।
मात्रासौ
नवनीतचौर्यकुतुके प्राग्भॢत्सत: स्वाञ्चले-
नामृज्यास्य
मुखं तवैतदखिलं वत्सेति कण्ठे कृत: ।।
एक
दिन माताने माखनचोरी करनेपर श्यामसुन्दरको धमकाया, डाँटा-फटकारा
। बस, दोनों नेत्रोंसे आँसुओंकी झड़ी लग गयी । कर-कमलसे
आँखें मलने लगे । ऊँ-ऊँ-ऊँ करके रोने लगे । गला रुँध गया । मुँहसे बोला नहीं जाता
था । बस, माता यशोदाका धैर्य टूट गया । अपने आँचलसे अपने
लाला कन्हैयाका मुँह पोंछा और बड़े प्यारसे गले लगाकर बोलीं—‘लाला ! यह सब तुम्हारा ही है, यह चोरी नहीं है ।’
एक
दिनकी बात है—पूर्णचन्द्रकी चाँदनीसे मणिमय आँगन धुल गया था । यशोदा मैयाके साथ
गोपियोंकी गोष्ठी जुड़ रही थी । वहीं खेलते-खेलते कृष्णचन्द्रकी दृष्टि चन्द्रमापर
पड़ी । उन्होंने पीछेसे आकर यशोदा मैयाका घूँघट उतार लिया । और अपने कोमल करोंसे
उनकी चोटी खोलकर खींचने लगे और बार-बार पीठ थपथपाने लगे । ‘मैं
लूँगा, मैं लूँगा’—तोतली बोलीसे इतना
ही कहते । जब मैयाकी समझमें बात नहीं आयी, तब उसने
स्नेहाद्र्र दृष्टिसे पास बैठी ग्वालिनोंकी ओर देखा । अब वे विनयसे, प्यारसे फुसलाकर श्रीकृष्णको अपने पास ले आयीं और बोलीं—‘लालन ! तुम क्या चाहते हो, दूध !’ श्रीकृष्ण-‘ना’ । ‘क्या बढिय़ा दही ?’ ‘ना’ । ‘क्या खुरचन ?’ ‘ना’ । ‘मलाई ?’ ‘ना’ । ‘ताजा माखन ?’ ‘ना’ ग्वालिनोंने
कहा-‘बेटा ! रूठो मत, रोओ मत । जो
माँगोगे सो देंगी ।’ श्रीकृष्णने धीरेसे कहा—‘घरकी वस्तु नहीं चाहिये’ और अँगुली उठाकर चन्द्रमाकी
ओर संकेत कर दिया । गोपियाँ बोलीं-‘ओ मेरे बाप ! यह कोई
माखनका लौंदा थोड़े ही है ? हाय ! हाय ! हम यह कैसे देंगी ?
यह तो प्यारा-प्यारा हंस आकाश के सरोवरमें तैर रहा है ।’ श्रीकृष्णने कहा—‘मैं भी तो खेलनेके लिये इस हंस को
ही माँग रहा हूँ, शीघ्रता करो । पार जानेके पूर्व ही मुझे ला
दो ।’
अब
और भी मचल गये । धरतीपर पाँव पीट-पीटकर और हाथोंसे गला पकड़-पकड़ कर ‘दो-दो’ कहने लगे और पहलेसे भी अधिक रोने लगे । दूसरी
गोपियोंने कहा—‘बेटा ! राम-राम । इन्होंने तुमको बहला दिया
है । यह राजहंस नहीं है, यह तो आकाशमें ही रहनेवाला चन्द्रमा
है ।’ श्रीकृष्ण हठ कर बैठे—‘मुझे तो
यही दो; मेरे मनमें इसके साथ खेलनेकी बड़ी लालसा है । अभी दो,
अभी दो । ‘जब बहुत रोने लगे, तब यशोदा माताने गोदमें उठा लिया और प्यार करके बोलीं—‘मेरे प्राण ! न यह राजहंस है और न तो चन्द्रमा । है यह माखन ही, परंतु तुमको देनेयोग्य नहीं है । देखो, इसमें वह
काला-काला विष लगा हुआ है । इससे बढिय़ा होनेपर भी इसे कोई नहीं खाता है ।’ श्रीकृष्णने कहा—‘मैया ! मैया ! इसमें विष कैसे लग
गया ।’ बात बदल गयी । मैयाने गोदमें लेकर मधुर-मधुर स्वरसे
कथा सुनाना प्रारम्भ किया । मा-बेटेमें प्रश्रोत्तर होने लगे ।
यशोदा—‘लाला ! एक क्षीरसागर है ।’
श्रीकृष्ण—‘मैया ! वह कैसा है ।’
यशोदा—‘बेटा ! यह जो तुम दूध देख रहे हो, इसीका एक समुद्र
है ।’
श्रीकृष्ण—‘मैया ! कितनी गायोंने दूध दिया होगा जब समुद्र बना होगा ।’
यशोदा—‘कन्हैया ! वह गायका दूध नहीं है ।’
श्रीकृष्ण—‘अरी मैया ! तू मुझे बहला रही है भला बिना गायके दूध कैसे ?’
यशोदा—‘वत्स! जिसने गायोंमें दूध बनाया है, वह गायके बिना
भी दूध बना सकता है।’
श्रीकृष्ण—‘मैया! वह कौन है?’
यशोदा—‘वह भगवान् हैं; परंतु अग (उनके पास कोई जा नहीं
सकता। अथवा ‘ग’ कार रहित) हैं।’
श्रीकृष्ण—‘अच्छा ठीक है, आगे कहो ।’
यशोदा—‘एक बार देवता और दैत्योंमें लड़ाई हुई । असुरोंको मोहित करनेके लिये
भगवान्ने क्षीरसागरको मथा । मंदराचल की
रई बनी । वासुकि- नागकी रस्सी । एक ओर
देवता लगे, दूसरी ओर दानव ।’
श्रीकृष्ण—‘जैसे गोपियाँ दही मथती हैं, क्यों मैया ?’
यशोदा—‘हाँ बेटा ! उसीसे कालकूट नामका विष पैदा हुआ ।’
श्रीकृष्ण—‘मैया ! विष तो साँपोंमें होता है, दूधमें कैसे निकला
?’
यशोदा—‘बेटा ! जब शङ्कर भगवान् ने वही विष पी लिया, तब
उसकी जो फुइयाँ धरतीपर गिर पड़ीं, उन्हें पीकर साँप विषधर हो
गये । सो बेटा ! भगवान् की ही ऐसी कोई लीला है, जिससे दूध में
से विष निकला ।’
श्रीकृष्ण—‘अच्छा मैया ! यह तो ठीक है ।’
यशोदा—‘बेटा ! (चन्द्रमाकी ओर दिखाकर) यह मक्खन भी उसीसे निकला है । इसलिये
थोड़ा-सा विष इसमें भी लग गया । देखो, देखो, इसीको लोग कलङ्क कहते हैं । सो मेरे प्राण ! तुम घरका ही मक्खन खाओ ।’
कथा
सुनते-सुनते श्यामसुन्दरकी आँखोंमें नींद आ गयी और मैया ने उन्हें पलङ्ग पर सुला
दिया।
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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